आज का युग दिखावे व चमकधमक का है. यदि आप ऐसा नहीं करते तो समाज में आप की हैसियत शून्य मानी जाती है. आधुनिक युग की यह थ्योरी हर जगह और हर क्षेत्र में लागू होती है, अंतर्राष्ट्रीय जगत में तो और भी ज्यादा, जहां दिखावे व शोशेबाजी का जबरदस्त बोलबाला है. गत दिनों स्कौटलैंड के ग्लासगो में संपन्न राष्ट्रमंडल खेलों में बहुत खुले हाथों से पैसा बहाया गया पर रिकवरी 10 फीसदी भी नहीं हुई. अनुमान लगाया जा रहा है कि आयोजक देश को इस से बहुत जबरदस्त घाटा झेलना पड़ा है.

ऐसी ही कहानी गत दिनों संपन्न हुए विश्वकप फुटबाल टूर्नामैंट की है जिस में धमाकेदार चमचमाते आयोजन के लिए ब्राजील को खूब वाहवाही मिली, भले ही अरबों डौलर फूंक कर भी वह फिसड्डी रहा. ब्राजील में भी गत दिनों संपन्न विश्वकप फुटबाल टूर्नामैंट के आयोजन पर 154 अरब डौलर का खर्चा आया, जिस में से 62 करोड़ डौलर अकेले रियो डी जेनेरियो के उस मरकाना स्टेडियम के नवीनीकरण पर फूंक डाले गए, जिस में कुल जमा एक यानी फाइनल मैच खेला गया था. कर्ज ले कर इतनी मोटी राशि फूंकने के बावजूद ब्राजील न तो टूर्नामैंट जीत सका, न ही उस की कुछ कमाई ही हुई.

भव्य आयोजन का दिखावा

इसी तरह 19 सितंबर, 2014 से दक्षिण कोरिया में हुए एशियाई खेलों के बाबत हुए खर्चों को ले कर भी जबरदस्त होहल्ला मचा क्योंकि मेजबान देश का मेजबान शहर इंचियोन पहले से ही घोर कर्ज की दलदल में नाक तक डूबा हुआ है. इस एशियाई आयोजन की लागत अब 3.89 बिलियन अमेरिकी डौलर आंकी गई है. अपै्रल 2007 में जब इस आयोजन का जिम्मा इस शहर को सौंपा गया था तब इस की लागत मात्र 1.62 बिलियन अमेरिकी डौलर आंकी गई थी. mचर्चा है कि मेजबान शहर ने इस के लिए कई अरब डौलर का विदेशी कर्ज अपनी सरकार की गारंटी पर लिया है. यह स्थिति केवल ब्राजील की ही नहीं, बल्कि हर उस देश की हो जाती है जो किसी भी प्रकार के क्षेत्रीय या अंतर्राष्ट्रीय खेल टूर्नामैंट आयोजित करने का जिम्मा ले लेता है.

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