नंबर वन विराट 
वर्ष 2011 की वर्ल्ड चैंपियन भारतीय टीम का प्रदर्शन लगातार गिरता जा रहा है. टीम इंडिया को पहले दक्षिण अफ्रीका उस के बाद न्यूजीलैंड और फिर एशिया कप में हार का मुंह देखना पड़ा. बात हार और जीत की नहीं है, बात जोश और जज्बे की है जो इस समय भारतीय क्रिकेटरों में गायब है. 
पूर्व क्रिकेटर सुनील गावस्कर ने एक दैनिक अखबार के अपने कौलम में लिखा है कि अगर विदेशी धरती पर हार का सिलसिला यों ही चलता रहा तो अगले वर्ष आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में होने वाले विश्वकप को जीतने की उम्मीद कम है.
गावस्कर की यह बात बिल्कुल सत्य है क्योंकि विदेशी धरती पर भारतीय बल्लेबाज घुटने टेकते नजर आते हैं वहीं गेंदबाजों का भी बुरा हाल है. टीम इंडिया की गेंदबाजी हमेशा से ही कमजोर कड़ी रही है. देश हो या विदेश, हर जगह हमारे गेंदबाज रन लुटाने में माहिर हैं जिस का फायदा विपक्षी टीम को मिलता है.
मौजूदा समय में भारतीय क्रिकेट बुरे दौर से गुजर रहा है, यह तो पक्का है क्योंकि खिलाडि़यों को अब खेल प्रशासन ने अपनी उंगलियों पर नचाने की कवायद शुरू कर दी है. क्रिकेट प्रशासन से जुड़े लोग अपनी राजनीति को चमकाने और खेल संघों में कुरसी हथियाने के लिए पैसों से खेल रहे हैं, भला खिलाडि़यों के खेल से उन्हें क्या लेनादेना.
बहुत से खिलाड़ी इस बात से वाकिफ हैं लेकिन इस डर से कोई बोलता नहीं कि कहीं बाहर का रास्ता न दिखा दिया जाए. टीम में अपनी जगह पक्की रहे और आकाओं की बात सुनते रहें इसी में भलाई है, यह सोच कर वे चुप रह जाते हैं.
बहरहाल, टीम इंडिया के लिए एक राहत की बात यह है कि विराट कोहली ने आईसीसी की रैंकिंग में नंबर वन की पोजीशन पर फिर से कब्जा जमा लिया है जबकि टीमों की रैंकिंग में भारतीय टीम अपने दूसरे स्थान पर बरकरार है. 
खेल पस्त, प्रशासन मस्त
खेलों को बढ़ावा देने के लिए सरकार की भूमिका बहुत अहम होती है लेकिन यदि हम संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी यूपीए की बात करें तो पिछले 10 वर्षों में यूपीए सरकार ने खेलों का बेड़ा गर्क कर दिया.
वर्ष 2010 में राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान घोटालों और भ्रष्टाचार के चलते अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की किरकिरी हो चुकी है. शायद यही वजह रही कि भारत को ओलिंपिक की मेजबानी नहीं मिली. ओलिंपिक की बात तो दूर, वर्ष 2018 में एशियाई खेलों की मेजबानी पर भी पानी फिर गया. 
खेलों का किस तरह से बेड़ा गर्क हुआ है इस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चीन एक ओलिंपिक में जितने पदक जीतता है उतने पदक शायद हम आजादी के बाद से अब तक नहीं जीत पाए हैं. राष्ट्रीय खेल हौकी का हश्र किसी से छिपा नहीं है. 
वर्ष 2008 में तो भारतीय हौकी ओलिंपिक में क्वालीफाई तक नहीं कर सकी. हौकी खिलाडि़यों और हौकी खेल संघों के बीच का विवाद गहराता गया. इस चक्कर में खेल का स्तर गिरता गया लेकिन इस में खिलाड़ी और खेल संघ इतना उलझ गए कि हौकी का स्तर दिनोंदिन गिरता गया और आज भी मेजर ध्यानचंद को भारतरत्न देने के लिए हौकी खिलाड़ी सड़कों पर उतर कर अपनी नाराजगी जाहिर करते रहते हैं. 
अब तो आईपीएल की तर्ज पर हर खेल से कैसे पैसा कमाया जाए, इस की रणनीति ज्यादा बनने लगी है. खिलाडि़यों की नीलामी हो रही है और अब देश के लिए नहीं, बल्कि अपने मालिकों के लिए खेलना उन का लक्ष्य होता जा रहा है. खेल संघों में बैठे पदाधिकारियों को इस से कोई फर्क नहीं पड़ता कि खेल का स्तर गिरता जा रहा है. उन की कोई जवाबदेही भी नहीं है.  

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