अगर आप मसालेदार, चटपटी फिल्मों का मोह त्याग कर कुछ नई तरह की फिल्म देखना चाहते हैं तो ‘जल’ देखिए. ‘जल’ जैसी फिल्में फिल्म समारोहों के लिए बनाई जाती हैं और इन फिल्मों की खूब तारीफ भी होती है. इस फिल्म को बुसान फिल्म फैस्टिवल के लिए चुना गया है. भारत में प्रदर्शित होने से पहले यह फिल्म विदेशों में प्रशंसा हासिल कर चुकी है. हालांकि यह फिल्म डौक्यूमैंटरी सरीखी लगती है, फिर भी कलाकारों के अभिनय, बेहतरीन फोटोग्राफी और अच्छे निर्देशन की वजह से फिल्म को देखा जा सकता है.
भारत के गांवों के लोग आज भी अंधविश्वासों से घिरे हैं. ‘जल’ में कच्छ के रन में बसे गांवों के लोग पानी के देवता की पूजा करते हैं. वे बक्का (पूरब कोहली) नाम के एक आदमी को पानी का देवता मानते हैं. बक्का मंत्र बुदबुदा कर उन्हें बता देता है कि जमीन के नीचे कहां पानी है.
 
पीने के पानी को ले कर वहां के 2 गांवों में आपसी रंजिश है. गांव वालों को विश्वास है कि बक्का जहां कहेगा, वहां पानी निकलेगा. गांव वाले बक्का को पानी का कुआं खोदने को कहते हैं. तभी गांव में रूस से एक मेमसाहिबा (साइदा जूल्स) आती है. वह गांव में बनी खारे पानी की एक झील की तलहटी में मरे सैकड़ों फ्लैमिंगो पक्षियों पर शोध करने वहां आई है. शोध से उसे पता चलता है कि हर साल आप्रवासी फ्लैमिंगो पक्षियों की बड़ी तादाद वहां आती है और उन पक्षियों के पंखों में नमक चिपक जाने से उन की मौत हो जाती है. वह बक्का की बताई जगह पर ड्रिलिंग कराती है और मीठे पानी का सोता फूट पड़ता है. पक्षियों के लिए मीठे पानी की झील बन जाती है.
गांव वालों के लिए पीने के पानी की समस्या ज्यों की त्यों बनी रहती है. इधर बक्का, जो कभी गांव की लड़की कजरी (कीर्ति कुल्हरी) से प्यार करता था, को दुश्मन गांव की केसर (तनिष्ठा चटर्जी) भा जाती है और वह उस से शादी कर लेता है. केसर प्रैगनैंट हो जाती है. गांव वाले बक्का को पीने के पानी का कुआं खोदने को कहते हैं लेकिन असफल रहने पर गांव वाले बक्का और केसर दोनों को गांव से बाहर रन की तपती रेत पर फेंक आते हैं. वहीं दुश्मन गांव का युवक पुनिया (मुकुलदेव) केसर से रेप करने की कोशिश करता है परंतु ऐन मौके पर कजरी वहां पहुंच कर खुद को पुनिया के हवाले कर केसर को बचा लेती है. वहीं रन में ही केसर प्रसव के दौरान मर जाती है और बक्का पगलाया सा उसे ले कर गायब हो जाता है.
निर्देशक गिरीश मलिक ने इस फिल्म के लिए एक ऐसा विषय चुना है, जिस पर शायद कोई बड़े से बड़ा दिग्गज भी फिल्म बनाने की हिम्मत जुटा सके. कच्छ के रन में, जहां 50 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान रहता हो, शूटिंग करना आसान काम नहीं है.
पूरब कोहली ने अच्छा अभिनय किया है. इस से पहले वह ‘शादी के साइड इफैक्ट्स’ में नजर आया था. कजरी की भूमिका में कीर्ति कुल्हरी के चेहरे पर सांवलासलोनापन झलकता है.
फिल्म का निर्देशन कुछ हद तक अच्छा है. निर्देशक के पास दिखाने के लिए कच्छ के रन की रेत, सूखा और कहींकहीं पानी व ऊंटों पर सवारी करते गांव वालों के अलावा कुछ था भी नहीं. फिल्म में संदेश है कि दुनिया को फ्लैमिंगो पक्षियों को बचाने की तो चिंता है, परंतु पानी के लिए तरसते लोगों की नहीं. फिल्म की अवधि कुछ कम हो सकती थी.
लोकल गाइड के रूप में यशपाल शर्मा का काम अच्छा है. अन्य कलाकार भी अपनीअपनी भूमिकाओं में फिट हैं. पार्श्व संगीत अनुकूल है. सिनेमेटोग्राफी काफी अच्छी है. दूरदूर तक फैला रेगिस्तान और रेत में उठे बवंडरों की फोटोग्राफी लाजवाब है

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