इंसानी फितरत है कि उसे दूसरों का दुख, दूसरों का दर्द, दूसरों के संघर्ष को देखने में आनंद मिलता है. इसी इंसानी फितरत को ध्यान में रखकर विक्रमादित्य मोटवाणे रोमांचक फिल्म ‘‘ट्रैप्ड’’ लेकर आए हैं. मगर फिल्म देखकर कहीं भी फ्लैट के अंदर कैद इंसान का दर्द या दुख उभरकर नहीं आता है, बल्कि फिल्म का नायक शौर्य जिस तरह के कदम उठाता है, उसे देखकर लगता है कि वह सिरे दर्जे का बेवकूफ या विवेक शून्य इंसान है.

‘‘उड़ान’’ से निर्देशक विक्रमादित्य मोटावणे ने जो उम्मीद बंधाई थी, उसे उन्होंने अपनी दूसरी फिल्म ‘‘लुटेरा’’ में तोड़ा था और अब अपनी तीसरी फिल्म ‘‘ट्रैप्ड’’ से तो उन्होंने साबित कर दिखाया कि बतौर निर्माता व निर्देशक वह अच्छी फिल्म बना ही नहीं सकते.

फिल्म ‘‘ट्रैप्ड’’ की कहानी के केंद्र में शाकाहारी युवक शौर्य (राज कुमार राव) हैं. जो कि एक कंपनी में नौकरी कर रहे हैं तथा मुंबई में चार दोस्तों के साथ एक मकान में रहते हैं. उन्हें नूरी (गीतांजली थापा) से प्यार है. शौर्य व नूरी के बीच जिस्मानी रिश्ते भी हैं.

एक दिन नूरी कह देती है कि यदि शौर्य ने अपना फ्लैट लेकर दो दिन के अंदर उससे शादी नहीं की, तो उसकी शादी किसी अन्य पुरूष से हो जाएगी. इसके बाद शौर्य किसी तरह पंद्रह हजार माह के किराए पर एक नई बहुमंजली इमारत में फ्लैट का जुगाड़ कर लेते हैं.

पता चलता है कि कुछ कानूनी पचड़ों की वजह से इस इमारत में कोई रहने नहीं आया. वह रात में ही उस फ्लैट में रहने आ जाता है. दूसरे दिन सुबह वह नूरी से मिलने जाने लगता है. घर से बाहर निकलने के बाद याद आता है कि मोबाइल अंदर रह गया. वह दरवाजे के ताले में चाभी लगी छोड़कर अंदर मोबाइल लेने जाता है. और दरवाजा बंद हो जाता है.

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