ट्विंकल खन्ना, अक्षय कुमार और आर बालकी औरतों द्वारा माहवारी के दौरान सैनेटरी नैपकीन के उपयोग को रेखांकित करने वाली अपनी फिल्म ‘‘पैडमैन’’ लेकर आते, उससे पहले ही निर्देशक अभिषेक सक्सेना सैनेटरी नैपकीन पर हास्य व्यंग युक्त फिल्म ‘‘फुल्लू’’ लेकर आ गए. मगर औरतें सैनेटरी पैड का उपयोग करने की बजाय कपड़ों का उपयोग क्यों करती हैं? के सवाल के साथ औरतों को माहवारी के दौरान सैनेटरी नैपकीन के उपयोग की वकालत करने वाली फिल्म ‘‘फुल्लू’’ अपने इस मकसद में सफल नजर नही आती. यह फिल्म नारी उत्थान व नारी स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर भी बहुत सतही स्तर पर ही बात करती है. जबकि इस तरह के संदेश को शहर व गांव हर जगह पहुंचाने की जरुरत है.

यह कहानी है उत्तर भारत के एक गांव में रहने वाले फुल्लू (शरीब हाशमी) की. जो कि अपनी मां (नूतन सूर्य) और बहन तारा के साथ रहता है. फुल्लू नाम के अनुरूप काफी भोला है. वह कोई काम धाम नहीं करता. जबकि मां गूदड़ी सिलकर बेचती रहती है. फुल्लू अपनी मां के लिए शहर से कपड़ों की कतरने लाकर देता रहता है, जिसकी गूदड़ी सिलकर वह बेचती है. फुल्लू गांव भर की औरतों के लिए शहर से सामान लाकर देता रहता है और दिन भर मटरगश्ती करता रहता है. उसकी मां उसे ताने मारती रहती है. वह कहती है कि उसका बेटा निकम्मा और मौगा हो गया है. वह चाहती है कि फुल्लू शहर जाकर कुछ काम करके चार पैसे कमाकर लाए.

गांव की एक औरत की सलाह पर फुल्लू की मां उसका ब्याह बिगनी (ज्योति सेठी) से करा देती है कि शादी के बाद फुल्लू जिम्मेदारी का अहसास कर सुधर जाएगा. मगर वह तो दिन रात अपनी पत्नी के साथ कमरे में ही घुसा रहता है. एक दिन उसकी पत्नी बताती है कि उसे खरिस हो गयी है. डाक्टर की सलाह पर दवा ली है और फिटकरी से धोया भी है. इसी बीच शहर में दवा की दुकान पर जब फुल्लू गांव की मास्टरनी व कुछ दूसरी औरतों के लिए सामान लेने पहुंचता है, तो उसे वहां मौजूद डाक्टरनी से पता चलता है कि उसके गांव की मास्टरनी ने उससे दवाई नहीं बल्कि सैनेटरी पैड मंगवाया है. जो कि औरतों के लिए बहुत जरुरी है.

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