क्या हम यह मानते हैं कि भारत आज 21वीं सदी में भी महज जादू टोने व सांप संपेरों का देश है? कम से कम चीन की फिल्म निर्माण कंपनी के साथ संयुक्त रूप से सोनू सूद द्वारा निर्मित फिल्म ‘‘कुंगफू योगा’’ तो इसी बात को साबित करती है. फिल्म के नाम के साथ योगा शब्द जुड़ा है, मगर फिल्म में योगा नदारद है. फिल्म के एक सीन में जब जैक खलनायकों से जान बचाते हुए पानी में गिर जाते हैं, तब अश्मिता उनसे कहती है कि योगा के बल पर आठ मिनट तक सांस ली जा सकती है. अन्यथा पूरी फिल्म से योगा नदारद है. हकीकत में यह फिल्म न सिर्फ भारतीय दर्शकों के साथ खिलवाड़ करती है, बल्कि देश की अस्मिता के साथ भी खिलवाड़ करती है. फिल्म देखने के बाद सबसे पहला व अहम सवाल उठता है कि आखिर सोनू सूद की क्या मजबूरी थी, जो कि उन्होंने न सिर्फ फिल्म ‘‘कुंगफू योगा’’ में अभिनय किया, बल्कि इसका सह निर्माण व भारत में वितरण भी किया? यह फिल्म सोनू सूद के करियर पर एक बड़ा धब्बा साबित हो जाए, तो कोई आश्वर्य नहीं होना चाहिए. कथानक के नाम पर भी यह फिल्म शून्य है. बहुत बारीकी से सोचा जाए तो यह फिल्म पूर्णरूपेण भारत को लेकर चीन की जो सोच है, उसे जरुर परिलक्षित करती है. 

रोमांचक नाटकीय फिल्म ‘‘कुंगफू योगा’’ की शुरुआत प्राचीन भारत व 300 ईसापूर्व के इतिहास  और उस वक्त के एक युद्ध के बारे में बताते हुए होती है. जबकि कहानी के केंद्र में चीन के एक म्यूजियम में कार्यरत पुरातत्वविद जैक (जैकी चैन) हैं. जिनसे मिलने के लिए एक दिन भारत से एक प्रोफेसर अश्मिता (दिश पटानी) और उनकी टीचिंग सहायक कायरा (अमायरा दस्तूर) पहुंचते हैं. अश्मिता ने अपने साथ एक हजार साल पुराना मैप लिया हुआ है, जिसकी मदद से जैक मगध का पुराना खजाना खोजने की कोशिश करता है. कहानी चीन से दुबई और फिर भारत में राजस्थान पहुंचती है. राजस्थान में एक किले के बाहर सांप व संपेरों का खेल तथा जादू टोना आदि का खेल दिखाया गया है. (अब यह सोनू सूद या जैकी चैन या फिल्म के चीनी निर्देशक स्टैनली टांग ही बेहतर बता सकते हैं कि भारत में किस किले के पास पर्यटकों को लुभाने के लिए आज भी जादू टोना या सांप सपेरों का खेल चलता रहता है.)

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