‘‘शमिताभ’’ के बाद ‘‘की एंड का’’ देखने के बाद अहसास होता है कि आर बालकी भी अब चुक गए हैं. ‘शमिताभ’ के बाद एक बार फिर वह मात खा गए. फिल्म ‘‘की एंड का’’ में लेखक व निर्देशक आर बालकी ने एक उत्कृष्ट और ज्वलंत मुद्दे को उठाया है, मगर इस मुद्दे पर वह रोचक फिल्म बनाने में बुरी तरह से असफल रहे हैं. काम को लिंगभेद से परे रखने का उनका संदेश भी महज भाषण बाजी बनकर रह गया है. इसके अलावा संवादों व दृश्यों का दोहराव बहुत ज्यादा है. फिल्म की कहानी को जिस समाज यानी कि उच्च मध्यमवर्गीय परिवार के इर्द गिर्द बुना गया है, उससे भी मुद्दा कमजोर हो गया. फिल्म के संवाद भी स्तरीय नहीं है. लेखक निर्देशक आर बालकी इसे रोमांटिक कामेडी फिल्म मानते हैं, मगर अफसोस की बात यह है कि फिल्म में रोमांस व भावनाओं का अभाव है. फिल्म न तो फैंटसी है और न ही वास्तविकता के धरातल पर खरी उतरती है.

फिल्म ‘‘की एंड का’’ के लेखक व निर्देशक आर बालकी खुद विज्ञापन जगत से आए हैं. पिछले कई वर्षों से वह लगातार कई प्रोडक्टों के विज्ञापन बनाते आए हैं. इसीलिए उन्होने इस फिल्म में भी सभोला से लेकर चावल, भवन तक कई चीजें बेचने की कोशिश की है. पर विज्ञापन जगत से जुड़े होने के बावजूद वह कुछ वर्ष पहले आए एक मोबाइल के विज्ञापन को नजरंदाज कर गए. इस तीस सेकंड के विज्ञापन ने पुरूष और औरत की बदलती भूमिकाओं व रिश्तों पर जबरदस्त बहस छेड़ी थी. आर बालकी तो इन दिनों कई टीवी चैनलों पर चल रहे वाशिंग मशीन के विज्ञापन को भी याद नही कर पाए. यदि वह इन दोनों विज्ञापनों का याद करते, तो शायद वह एक अच्छी पटकथा लिख लेते. दूसरी बात यह फिल्म एकता कपूर के सीरियलों की तरह लगती है, जहां कहानी का अभाव है. पुरूष और नारी पर समाज ने काम को लेकर जो दबाव बना रखा है, उस पर यह फिल्म चर्चा करने में पूरी तरह से विफल नजर आती है.

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