जिंदगी में अगर कोई ट्रेजेडी हो जाए तो उसे याद करकर के दुखी होने के बजाय जीवन में आगे बढ़ने की कोशिश करनी चाहिए. किसी प्रियजन के बिछुड़ जाने के बाद बजाय उदास रहने और डिप्रैशन ओढ़ लेने के इंसान को सहज हो जाना चाहिए. जाने वाला तो चला गया, उस के साथ आप की जिंदगी खत्म नहीं हो जाती. जीवन तो चलता रहता है. यही संदेश देती है फिल्म ‘क्लब 60’.

60 साल या उस से ज्यादा उम्र के लोगों के जीवन पर बनी इस फिल्म में कमर्शियल ऐंगल नहीं है, फिर भी यह दर्शकों को काफी हद तक बांधे रखती है. निर्देशक ने फिल्म में संतुलन बनाए रखा है. एक तरफ तो उस ने प्रमुख किरदारों के जीवन की त्रासदी को दिखाया है, दूसरी तरफ क्लब में रोजाना मिलते, टैनिस खेलते 5 ऐसे 60 साल के दोस्तों को दिखाया है जो न सिर्फ क्लब में खेलने आते हैं वरन आपस में हंसीमजाक भी करते हैं, एकदूसरे के सुखदुख में भागीदार भी बनते हैं. उन सब की अपनीअपनी त्रासदी है, मगर वे बीते कल को भूल कर आज में जीते हैं. वे एकदूसरे को छेड़ते हैं, एकदूसरे से झगड़ते हैं. सबों के जीवन में गम होते हुए भी वे गमों से दूर हैं.

‘क्लब 60’ शहरी जीवन की फिल्म है और जीवन के प्रति पौजिटिव नजरिया दर्शाती है. इस तरह की अच्छी फिल्में यदाकदा ही बनती हैं. निर्देशक ने अपनी बात खूबसूरती से कही है.

इस फिल्म की कहानी एक कपल 60 वर्षीय डा. तारिक शेख (फारूक शेख) और 52 वर्षीय डा. सायरा शेख (सारिका) से शुरू होती है. उन का युवा बेटा इकबाल शेख अमेरिका में पढ़ने जाता है. वहां एक सिरफिरे द्वारा की गई गोलीबारी में उस की मौत हो जाती है. तारिक और सारिका पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ता है. डिप्रैशन में आ कर तारिक अपनी जान देने की कोशिश करता है. तभी उन की जिंदगी में उन्हीं की बिल्डिंग में रहने वाला मनूभाई शाह (रघुबीर यादव) आता है. वह बिन बुलाए मेहमान की तरह आता है और तारिक व सायरा की जिंदगी में हलचल मचा जाता है. वह तारिक को ‘क्लब 60’ जौइन करने को कहता है.

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