गिनेचुने कम किरदारों को ले कर फिल्म बनाने पर पहले भी कुछ प्रयोग किए जा चुके हैं. 20-25 साल पहले अकेले सुनील दत्त को ले कर एक फिल्म ‘यादें’ बनाई गई थी. पूरी फिल्म में केवल एक ही किरदार था जो सुनील दत्त ने निभाया था. यह प्रयोग सफल नहीं हुआ था और फिल्म फ्लौप हो गई थी.

‘क्या दिल्ली क्या लाहौर’ में निर्माता करण अरोड़ा ने बौक्स औफिस के फार्मूलों का मोह त्याग कर एक ऐसे सब्जैक्ट को चुना है जो आज भी मौजूद है. हर भारतीय और हर पाकिस्तानी के दिल में भारतपाक विभाजन का दर्द मौजूद है. दोनों देशों के लोगों के दिलों में यह सवाल टीस बन कर उभरता है कि आखिर उन का कुसूर क्या था? गांधी और जिन्ना जैसे सियासतदानों की वजह से उन की जिंदगी बदतर क्यों हो गई? दोनों देशों के लोग आज भी एकदूसरे से नफरत क्यों करते हैं? आज भी पाकिस्तान वालों को बताया जाता है कि इस सारे झगड़े की जड़ हिंदुस्तान वाले हैं और हिंदुस्तानियों को सिखाया जाता है कि पाकिस्तानियों से नफरत करो. भारतपाक विभाजन के इस दर्द को एक हिंदुस्तानी और एक पाकिस्तानी फौजी के माध्यम से परदे पर पेश किया है.

फिल्म का निर्देशन विजय राज ने किया है. उस ने फिल्म में पाकिस्तानी फौजी की भूमिका भी निभाई है. विजयराज को इस से पहले फिल्म ‘मौनसून वैडिंग’, ‘दिल्ली 6’ तथा ‘देल्ही बेली’ के लिए पुरस्कार मिल चुके हैं.

फिल्म की कहानी एक फौजी चौकी से शुरू होती है. यह चौकी भारतीय इलाके में है. चौकी में तैनात सभी सिपाही मारे जा चुके हैं. मात्र एक फौजी, समर्थ प्रताप शास्त्री (मनु ऋषि) जो बावर्ची है, बचा है. उसी बीच पड़ोसी मुल्क की सेना का अफसर (विश्वजीत प्रधान) अपने साथ बचे फौजी रहमत अली (विजय राज) से भारतीय चौकी में जा कर एक गुप्त फाइल को लाने को कहता है.

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