गृहस्थी की सत्ता की लड़ाई में सास अब हारकर हथियार डालने लगी है. ऐसे किस्से सुन कर उतना ही बुरा लगता है जितना कल को यह सुन कर लगता था कि सास ने बहू को प्रताडि़त किया, उसे खाना नहीं दिया, मारापीटा, बेटे के पास नहीं जाने दिया और कमरे में बंद कर दिया या धक्का दे कर घर से बाहर निकाल दिया वगैरावगैरा.

अब जमाना बदल रहा है. ललिता पवार टाइप क्रूर सासें फैमिली पिक्चर से गायब हो रही हैं. जमाना स्मार्ट और तेजतर्रार बहुओं का है. वे अपनी अलग दुनिया बसाना चाहती हैं जिस में उन के साथ ससुराल वाला कोई न हो, खासतौर से सास तो बिलकुल नहीं. सिर्फ पति हो. यह इच्छा आसानी से पूरी नहीं होती तो वे तरहतरह के हथकंडे अपनाती हुई सासों को घर से धकेलती या खुद अपना अलग साम्राज्य स्थापित करती नजर आ रही हैं. वे अपनी मंशा में कामयाब भी हो रही हैं क्योंकि अब काफीकुछ उन के हक में है.

भोपाल के महिला थाने के परामर्श केंद्र में सुनवाई और इंसाफ के लिए आए इन दिलचस्प और अनूठे मामलों को जानने से पहले इस शाश्वत सवाल का जवाब खोजा जाना जरूरी है कि घर किस का, सास का या बहू का. सास स्वभाविक रूप से समझती है कि घर उस का है क्योंकि यह उस की सास ने विरासत में उसे सौंपा था जिसे व्यवस्थित करने और सहेजने में उस ने अपनी जिंदगी लगा दी. इधर, बहू को सास के कथित त्याग, तपस्या और समर्पण से कोई लेनादेना नहीं होता. वह फुजूल की इन फिल्मी और किताबी फलसफों के पचड़ों में नहीं पड़ना चाहती. कई मामलों में तो वह घर पर अपनी दावेदारी भी नहीं जता रही जो संघर्ष की पहली सीढ़ी है. वह बगैर लड़े जीतना चाहती है.

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