विष्णु प्रकाश अवकाशप्राप्ति के बाद अपनी पत्नी के साथ छोटे से शहर में अपने बनाए हुए घर में एक तरह से आराम से ही रह रहे थे. अकेलेपन और बच्चों से दूरी अवश्य खलती थी पर उन्हें, खासकर उन की पत्नी को, यह तसल्ली रहती थी कि वे किसी पर आश्रित नहीं हैं. साल में एकाध बार सपत्नी 2-4 दिनों के लिए वे दोनों बेटों के यहां घूम आते और इसी तरह बेटे भी सपरिवार इन के पास चक्कर लगा जाते.

वे दोनों जब बेटों के यहां से घूम कर आते तो महीनों उन की जीवनशैली, छोटे घर और खानपान पर चर्चाएं करते और सुकून के घूंट भरते कि उन्हें बेटे के घर में रहने की जरूरत नहीं है. बेटों के बच्चे और काम की जिम्मेदारियां समय के साथ बढ़ते जा रहे थे. सो, वे आग्रह करते कि मातापिता ही आएं और अधिक दिन साथ रहें. पर विष्णु प्रकाश को एक तरह से अपनी आत्मनिर्भरता पर अहंकार सा था. उन्हें महसूस होता कि जो उन की जीवनशैली है वही श्रेष्ठ है, बच्चों की जीवनशैली भी वैसे ही होनी चाहिए. इसी तरह उन की पत्नी सुलेखा को लगता कि जो उन की रसोई में पकता आया है वही सही और संतुलित है, बहुओं की कार्यशैली पर उन की हजार शिकायतें रहतीं.

यों अहंकार और आत्मसंतुष्टि में जीवन ठीक ही कट रहा था पर मुश्किल तब आई जब विष्णु प्रकाश को एक दिन हार्टअटैक आया. उन के छोटे से शहर में सही इलाज संभव न था और बेटे कितनी छुट्टियां लेते. सो, एक बेटा, जो दिल्ली में रहता था, उस ने अपने पास ही बुला लिया. ओपन हार्ट सर्जरी के बाद जब तक अस्पताल में रहे तब तक लगभग सब ठीक ही चला. सुलेखा सुबह बहू द्वारा दिया गया टिफिन ले कर अस्पताल चली जातीं और शाम को आतीं. रात को बेटा अस्पताल में रहता. परंतु जैसे ही विष्णुजी अस्पताल से डिस्चार्ज हो घर लौटे, उन दोनों की परेशानियां शुरू हो गईं. उन्हें लगता कि वे जल्द से जल्द अपने घर लौट जाएं. परंतु पूर्ण स्वस्थ होने तक तो उन्हें रुकना ही था.

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