रेडीमेड फूड के खिलाफ शोर आजकल कुछ ज्यादा हो गया है. कभी पिज्जा में खराबी बताई जाती है, कभी चमचमाती सब्जियों पर कैमिकल और वैक्स की बात होती है तो कभी दूध में यूरिया की मिलावट की शिकायत की जाती है. कोकाकोला में पैस्टीसाइड, चीनी व कुछ दूसरी जहरीली चीजों की चेतावनी दी जाती है तो प्लास्टिक कंटेनरों की भरपूर भर्त्सना की जाती है. मजेदार बात यह है कि इन सब का निशाना और कोई नहीं, गृहिणियां हैं. बारबार अपरोक्ष रूप से कहा जा रहा है कि घर का खाना खाओ यानी औरतों को रसोई में रखो. रेडीमेड भोजन ने औरतों को खाना बनाने, बरतन साफ करने और रसोई संवारने के काम से मुक्ति दिलाई है. ऐसे में क्या यह हल्ला उन्हें ही निशाना बना कर नहीं मचाया जा रहा है?

प्रकृति में अपनेआप में कितने जोखिम हैं. जो जंगलों में रहते हैं वे कीटाणुओं, सांपों, बिच्छुओं, जहरीले पौधों, सड़ते खाने, भूख, बीमारी, छत के अभाव से मरते रहे हैं, क्या कभी गिनाया जाता है. बैक टू नेचर का नारा लगाया जाता है पर इस का असली अर्थ तो है बैक टू किचन. औरतें खटतीमरती रहें, रसोई में बंधी रहें, आदमी, बच्चे लड्डू, मठरी, पूरी की मांग करते रहें और औरतें जलती आंच और तेल की खौलती कड़ाही में अपनी स्किन जलाती रहें. क्या इस सारे हल्ले का यह छिपा उद्देश्य नहीं है?

रोचक बात है कि सोशल मीडिया पर 25 मंजिले औफिसों से फैलते जहर की बात नहीं होती. कंप्यूटरों से पैदा होने वाले विकिरण की बात यदाकदा होती है. गोल्फ या क्रिकेट के मैदान को हरा करने के लिए छिड़के हरे रंग के नदियों के पानी में फैलने की बात नहीं होती. शराब के दुर्गुणों पर रोना कम रोया जाता है, पोटेटो चिप्स का ज्यादा होता है. क्यों? हर मोटरकार भयंकर प्रदूषण फैलाती है, फिर भी मर्द बड़ी से बड़ी कार चाहते हैं. लेकिन औरतों के लिए वही कड़ाही, वही गैस, वही अलमारी और तुर्रा यह कि उन में से नई तकनीक गायब. फैक्टरियों में आटोमेशन की बात तो होती है पर रसोई की फ्रिज और माइक्रोवेव में कितना आटोमेशन हुआ है, बताएं? अगर बाहर का खाना आ रहा है तो आपत्ति है लेकिन पुरुष बाहर क्लबों, पार्टियों, रेस्तराओं में लंच पर बिजनैस वार्त्ता करें, तो यह आधुनिकता. हो सकता है कि खाने की नई चीजों में अदृश्य जहर हो पर उन्हें सुधारने का काम वैज्ञानिकों का है. औरतों को डरा कर काम करने को मजबूर न करें. वे रसोई का आनंद लें, वह उन के लिए कैद न बने.

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