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लेखिका-अल्का पांडे

‘‘हैलो मैम, मैं नंदना बोल रही हूं, कैसी हैं आप?’’  ‘‘हुम्म, इतने दिनों बाद याद किया, लगता है  मुझे भूल गई हो,”  कविता ने उलाहना दी.

‘‘क्या करें मैम, समय ही नहीं मिलता. कभी मिनी को कुछ पूछना होता है, कभी नीपा को अपनी बात बतानी होती है, तो कभी सारा को मेरे साथ खेलना होता है,’’ नंदना के स्वर में शिकायत कम ख़ुशी ज्यादा झलक रही थी.

तभी पीछे से आवाज आई, ‘‘मम्मी, मेरी बात सुनो.’’ और नंदना ने कहा, ‘‘मैम, मैं बाद में बात करती हूं.” और कौल काट दी. नंदना का प्रफुल्लित स्वर सुन कर ही कविता एक सुखद आश्वस्ति के साथ अतीत के पन्नों में उलझ गई...

दूर क्षितिज में डूबते सूरज को देखते हुए बालकनी में चाय पीना कविता के दिन का सब से सुखद व निजी क्षण होता था. उस समय वह अकसर घर में अकेली होती थी. डूबता रवि अपने साथ कविता की पूरी थकान को भी डुबो देता था. चाय पीतेपीते अचानक ही उसे एक दिन पहले डाक से आई पुस्तक की याद आ गई और  पुस्तक को देखने की उत्सुकता में उस ने क्षितिज को निहारने का कार्यक्रम स्थगित कर दिया. पता नहीं किस ने भेजी है, उस ने तो मंगाई नहीं थी, सोचते हुए कविता ने पैकेट खोला तो एक उपन्यास था, जिस के आवरण पर घुटनों में सिर रखे लड़की का रेखाचित्र बना था. शीर्षक था ‘किस से कहूं.’ लेखिका का नाम था नंदना. कविता सोचने लगी, यह उपन्यास मुझे किस ने और क्यों भेजा है? कहीं गलती से तो मेरे पास नहीं आ गया? पर लिफाफे पर पता और नाम तो मेरा ही है.

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