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निर्मल नदी सी सुलेखा चाची, जिन्हें न कोई तमन्ना थी न ही कोई आस, ने मिलीजुली मिट्टी के गीलेअधगीले लौंदे को आकार दे कर मूर्तरूप देने की कोशिश की. विजय के रूप में चाची को भी जीने का सहारा मिल गया था. लेकिन सहसा ऐसा क्या हो गया कि चाची को विजय से कड़वे शब्दों का इस्तेमाल करना पड़ा?

‘‘तुम्हारी भाषा में प्यार किसे कहते हैं? तुम इतने नासमझ तो नहीं हो जो तुम्हें समझ में ही न आए कि सामने वाला तुम से प्यार कर रहा है या नहीं. घर में पलता पालतू जानवर तक प्यारभरा हाथ पहचान जाता है और तुम्हें इंसान हो कर भी इस बात का पता नहीं चला. वाह, धन्य हो तुम और तुम्हारा फलसफा.’’

सुलेखा चाची का स्वर इतना तीखा और कानों को भेद जाने वाला होगा, मैं ने कभी कल्पना भी नहीं की थी. ‘‘तुम्हारा कोई दोष नहीं है, बेटा. मेरा ही दोष है जो तुम्हें अपना बच्चा समझ कर तुम पर अपनी ममता लुटाती रही. सोचती रही बिना मां के पले हो, लाख कमियां हो सकती हैं तुम में क्योंकि कुछ बातें बचपन से ही सिखाई जाती हैं जन्मघुट्टी में घोल कर. जन्मघुट्टी में तुम्हें मां का सम्मान करना पिलाया ही नहीं गया तो कैसे तुम आज मेरा सम्मान कर पाते.’’

‘‘बड़ी मां,’’ विजय कुछ कह पाता, अपनी सफाई में कुछ बोल पाता इस से पहले ही सुलेखा चाची ने उसे हाथ के इशारे से रोक दिया. स्तब्ध रह गया था मैं भी. सुलेखा चाची जिन के शांत स्वभाव का सिक्का हमारा सारा खानदान मानता है वही इस तरह कैसे और क्यों बोलने लगीं? अच्छा भला तो सब चल रहा है. सुलेखा चाची ने अपनी एक सहेली की अनाथ बच्ची सीमा से विजय का रिश्ता भी पक्का कर रखा है.

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