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लेखिका- निखिल उप्रेती

.कबीर ने नई कौफी वैंडिंग मशीन पर एक नजर डाली और फिर मुसकराते हुए बोला,"गरमगरम डोनट, झाग वाली कौफी... वाह, और क्या चाहिए ठंड के मौसम में..."

"अब यह तेरी दुकान है, बेटा। जैसे मरजी चला इसे। बस, काम ईमानदारी से और ग्राहक खुश हों इस बात का खयाल हमेशा रखना," कबीर के पिता ने उसे प्यारभरी हिदायत देते हुए कहा.

कबीर ने मुसकराते हुए सिर हिलाया. सुबह की मीठी धूप में वह खुद को और भी तरोताजा महसूस कर रहा था। अपने पुरखों की बेकरी में वह अपने मनमुताबिक बदलाव लाना चाहता था.

होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई और फिर कुछ साल देश के बड़े होटलों में काम करने के बाद अब उस ने वापस अपने शहर आ कर अपनी इस बेकरी को संवारने का मन बना लिया था।

पिता और बाकी लोगों ने खूब समझाया की बड़े शहरों की हवा में सांस लेने वाले छोटे शहरों की बयार पसंद नहीं करते पर कबीर का मन पहाड़ों में ही बसता था. यहां की मिट्टी की खुशबू ही अलग थी।

बाजार में छोटीछोटी दुकानों की रौनक, सुबहसुबह दुकानदारों का अपनी दुकानों के आगे पानी के छींटें मारना, दुकान खुलने के बाद अंदर से आती अगरबत्ती की महक...

कबीर कुछ देर दुकान के बाहर खड़ा जाड़ों की धूप का मजा लेने लगा, तभी उस का ध्यान सामने की बेकरी के शटर खुलने की आवाज ने तोड़ा. गणपत और राजू के साथ सामने काव्या खड़ी थी जो उस की तरफ ही देख रही थी.

कबीर ने सड़क के दूसरी तरफ से काव्या की बेकरी के अंदर झांका। बादामी दीवारें जैसे बरसों से सूनी पड़ी थीं, शैल्फ पर धूल दूर से भी देखी जा सकती थी. न जाने क्यों कबीर के चेहरे पर एक मुसकराहट तैरने लगी, जिसे देख कर काव्या ने मुंह मोड़ लिया और बेकरी के अंदर दाखिल हो गई.

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