कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

‘‘कितनी अच्छी लगती है हंसते हुए. बुझीबुझी सी मत रहा कर, रिया. घर से निकले तो दुखों की गठरी वहीं दरवाजे पर छोड़ आया कर. चल बाय, मेरा स्टैंड आ गया,’’ सपना ने उस के कंधे पर आश्वासन का हाथ रखा. उस का भी स्टैंड अगला ही था.

औफिस में वही एक  सा रूटीन. बस, एक ही तसल्ली थी कि यहां काम की क्रद होती थी. इसलिए उस को तरक्की करते देर नहीं लगी थी. कौर्पोरेट औफिस में जिस तरह एक व्यवस्था व नियम के अनुसार काम चलता है, वही कल्चर यहां भी था. काम करोगे तो आगे बढ़ोगे, वरना जूनियर भी तेजी से आगे निकल जाएंगे. काम पूरा होना चाहिए. उस के लिए कैसे मैनेज करना है, यह तुम्हारा काम है. मैनेजमैंट को इस से कोई मतलब नहीं.

मार्केटिंग हैड होने के नाते कंपनी की उस से उम्मीदें न सिर्फ काम को ले कर जुड़ी हैं, बल्कि मुनाफे की भी वह उम्मीद रखती है. रिया कार रख सकती है. बेहतरीन सुविधाओं से युक्त घर में रह सकती है और अपनी लाइफस्टाइल को बढि़या बना सकती है. क्योंकि, कंपनी उसे सुविधाएं देती है. पर रिया ऐसा कुछ भी नहीं कर पाती है, क्योंकि उसे बेहतरीन जिंदगी जीने का हक नहीं है. वह वैसे ही जीती है जैसे उस की मां चाहती है. सुविधाओं के लिए मिलने वाले पैसे मां उसे अपने पर खर्च भी नहीं करने देती, बल्कि उन से दोनों बहनों के लिए जेवर खरीद कर रखती है. और उस के लिए... क्या मां के मन में एक बार भी यह विचार नहीं आता कि इस बेटी के अंदर भी जान है, वह कोई बेजान मूर्ति नहीं है. उस के विवाह का खयाल क्यों नहीं उसे परेशान करता.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...