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स्कूल मालिक ने साफसाफ कह दिया कि प्रत्येक कक्षा में चाहे 40 हों या 80 छात्र, वे नया सैक्शन नहीं बनाएंगे. अध्यापक की जिम्मेदारी बनती है कि वह हर हाल में सभी बच्चों पर उचित तरीके से ध्यान दे. किसी भी सूरत में गलत कौपियां नहीं जंचनी चाहिए. अगर बच्चे ने गलत लिखा और अध्यापिकाओं ने सही का निशान लगाया तो अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाएगी. निजी स्कूलों में अनुशासनात्मक कार्यवाही का मतलब नौकरी से हाथ धोना. यह कभी भी हो सकता है. शिक्षा सत्र के बीच में भी अध्यापकों को हटाया जा सकता है. यह अलग बात है कि जब नए अध्यापक की नियुक्ति होती है तो मालिक उस से यह वचन लेता है कि आप बीच में नौकरी छोड़ कर जाएंगे नहीं. यह उन विषयों के अध्यापकों पर लागू होता है जो सत्र के बीच में मिलते नहीं. या वे, जो कुछ ज्यादा ही काबिल हों और उलटे मालिक की गरज हो.

निजी स्कूलों में शिक्षकों की स्थित लेबर से भी बदतर है. लेबर को कम से कम एक वाजिब मजदूरी उस की शर्तों पर मिल जाती है मगर यहां तो इतनी भी आजादी नहीं है. अपराधी किस्म के लोग शिक्षा की दुकान खोल अध्यापकों पर हुक्म चलाते हैं, उस पर हम विश्वगुरु होने का भ्रम पाले हुए हैं. शिक्षकों में कानाफूसी शुरू हो जाती है, खासतौर से महिला शिक्षिकाओं में, जो घर भी देखती हैं और स्कूल भी. ऐसी कुछ ही अध्यापिकाएं होंगी जो घर से संपन्न होती हैं जिन के कमाने का मतलब रोज नईनई महंगी साड़ी पहन कर लोगों को दिखाना. वरना अलमारी में पडे़पड़े सिवा जंग लगने के क्या होता अगर स्कूल न जौइन की होतीं. इन के लिए स्कूल फैशनपरेड है जहां वे कैटवाक करती हैं. मजबूरीवश काम करने वाली अध्यापिकाओं में रोष फैल गया. कुछ तो आवेश में नौकरी छोड़ने की बात करने लगीं, वहीं कुछ घोर निराशा में डूब गईं. एकाध की आंखों में तो आंसू आ गए. पुरुष शिक्षक थोड़ा निश्ंिचत थे क्योंकि उन्हें सिर्फ नौकरी करनी थी. इसलिए पढ़ाने और कौपी जांचने के लिए वे समय निकाल ही लेंगे. मगर महिला शिक्षिकाएं कैसे समय का प्रबंध करेंगी? मनोरमा मैडम बोलीं, ‘‘इतने बच्चों की सहीसही कौपी जांचना क्या आसान है? पढ़ाएं कि कौपी जांचें? एक भी पीरियड खाली नहीं देते हैं. उस पर कहेंगे, अपने घर जा कर जांचिए. यानी चौबीसों घंटे इन्हीं के काम में लगे रहो. अपना काम कब होगा?’’

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