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‘‘आज तो साहब बाहर गए हैं, इसीलिए डब्बा साथ में ही दे दिया. वैसे तो घर में ही आ कर खाते हैं.’’ उसे उस की मासूमियत पर चिढ़ हो आई. वह चिढ़ते हुए सोचने लगी कि अपने पति की पसंदनापसंद भी इस गंवार से पूछनी पड़ रही है. उसे अपना अधिकार छिनता सा लगा. फिर भी शीतला को आलूमटर की सब्जी बनाने का आदेश दे कर वह अपने शयनकक्ष में आ कर लेट गई. थकान से पलकें बोझिल थीं, पर नींद कोसों दूर थी. शीतला मटर छील रही थी. मृदुल उस की पीठ पर झूला झूल रहा था. वह ज्यों ही झुकती, गहरे गले की चोली में से उस का गदराया शरीर दिखाई देता, जिसे लाख प्रयत्न करने के बावजूद उस की साड़ी का झीना आवरण छिपाने में असमर्थ था. सुरभि के मन में कई प्रश्न कुलबुलाने लगे कि कहीं शीतला के मदमाते यौवन और गदराए शरीर ने प्रारूप की संयमित चेतना को छितरा तो नहीं दिया? जब विश्वामित्र जैसे तपस्वी की चेतना को मेनका ने भंग कर दिया था तो प्रारूप तो साधारण पुरुष है. अम्मा ने बताया था. शीतला का पति अपाहिज है, उधर प्रारूप भी तो इतने बड़े बंगले में एकाकी जीवन बिता रहे हैं. 2 युवा प्राणी क्या स्वयं को संयमित कर पाए होंगे.

जब से अम्मा ने उसे प्रारूप के यहां शीतला की नियुक्ति की बात बताई थी, वह परेशान हो उठी थी. उस के मन में शंकाओं के जाल फैलने लगे थे. अपनी कल्पना में कभी वह शीतला और प्रारूप को आलिंगनबद्ध देखती तो कभी उसे मृदुल और प्रारूप के बीच बैठे देखती. कई दिनों से कोरे पड़े दिमाग पर जैसे भावों और विचारों का रेला आ गया हो. ‘यह क्या कर गईं अम्मा?’ उस ने मन ही मन सोचा था. किसी पुरुष को नियुक्त करतीं. आदमी आखिर आदमी होता है और औरत, औरत. इन

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