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अपने घर की बालकनी में नूपुर हाथ में चाय का प्याला लिए मधुर की मेल खोल कर पढ़ने लगी -

“मेरी अपनी नूपुर, आज मन अनायास ही कई वर्ष पीछे लुढ़क गया. याद है हमारी पहली मुलाकात? रैगिंग के उन क्षणों में बेचारगी भरा तुम्हारा कंपकंपाता चेहरा, डर से सफेद पड़ा रंग और प्रकंपी स्वर ने मुझे अपनी ओर ऐसा आकर्षित किया कि कोमल संवेदनाओं के उन रेशमी तारों की गिरफ्त से मैं आज भी स्वयं को छुड़ा न पाया.

"फिर हमारा प्रेम यों परवान चढ़ा कि सब को हम से ईर्ष्या होती थी. याद है न, कैसे सब हम दोनों में कभी गलतफहमी तो कभी फूट डालने की कोशिशें किया करते थे. आज अगर दिलीप मिल जाए तो साले की टांग तोड़ दूं. कैसे उस ने तुम्हारी सहेली के लिए मेरे नाम से प्रेमपत्र लिख कर तुम्हें दिखाया था. वो तो हमारा एकदूसरे पर अटूट विश्वास था कि लिखावट मिलतीजुलती होते हुए भी तुम ने मुझ पर शक नहीं किया. आज सोचता हूं तो हंसी आती है कि अपने ही दोस्त टांगखिंचाई का कोई अवसर नहीं चूकते थे.”

मेल को आगे पढ़ती नूपुर को अचानक समय का आभास हुआ. संजीव का ड्राइवर आता होगा लंच का बैग लेने.मेल को अधूरा छोड़ वह रसोईघर में संजीव के लिए खाना पकाने चली गई. मधुर के पठन में किसी प्रकार की कोई रुकावट नहीं थी. आज वह अपने स्टाफ की नजरों से दूर बैठ कर नूपुर की मेल जो पढ़ रहा था.

“वह दिन मैं आज भी नहीं भूल सकती, जब तुम्हें मेरे घर मेरे पापा से मेरा हाथ मांगने आना था. तुम नहीं आए. मैं ने कितनी मिन्नतों से मांपापा को तुम से मिलने को राजी किया था. तुम्हारे दबंगई व्यक्तित्व के किस्से मेरे कुछ कहने से पहले ही उन तक पहुंच चुके थे. उन्हें मुझ पर संदेह हो चुका था. मेरा तुम से मिलना उन्हें कतई पसंद न था. उस पर हमारी शादी... ये तो उन के लिए वज्रपात समान था. हमारे घरों में तब लड़कियां अपनी पसंद का वर कहां चुनती थीं. अच्छी लड़कियां तो वही कहलाती थीं, जो नीचे सिर किए, नीची दृष्टि से बस बड़ों की आज्ञा का पालन करती रहें. कितनी मनुहारों के पश्चात वे बेमन से तुम से मिलने को तैयार हुए थे.

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