कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

जहां जिंदगी को स्वर्ण युग मिला हो, उस मांबाप के घर और उन की ममता को छोड़ कर एक अनजान परिवेश मेें जाते समय जब लड़कियां फफकफफक कर रोती हैं, तो वह दृश्य बड़ा ही भावनात्मक होता है.

दिव्या की विदाई हो रही थी, तो धीरगंभीर उस के पिता जैसे जीवन की बहुत बड़ी निधि खो बेठे हों, इस तरह भारी दिल से बरामदे मेें खड़े रो रहे थे. लगभग अमेरिकी बन चुके उस के भैयाभाभी भी उस समय देहाती बन गए थे. भाई की आंखों से आंसू धारा की तरह बह रहे थे. उन्हें धीरज बंधाते हुए भाभी की आवाज कांप रही थी. मम्मी की तो बात ही अलग थी. उन का हाल बेहाल था. उन के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. दूसरी ओर दिव्या की आंखों से आंसू जरूर बह रहे थे, लेकिन जहां तक रोने की बात थी, वह सच्चे मन से बिलकुल नहीं रो रही थी. दिव्या को लग रहा था, वह ऐसे घर जा रही थी, जहां जा कर उस के मातृघर का संबंध और प्रगाढ़ होगा. तभी उस की सहेलियों में से एक सहेली ने कहा था, ‘‘प्रेम विवाह कर रही है न, ऊपर से सद्गुणी वर पाया है, इसीलिए लाडो मन से रो नहीं रही है. लेकिन जरा सास के चक्कर मेें तो पड़ने दो तब पता चलेगा.’’

दिव्या का शंकालु मन पलभर के लिए बेचैन हो गया. लेकिन अगले ही पल उस के अनुभवी दिल ने उसे संतोष दिलाया कि परेशान होने की जरूरत नहीं है. फिर भी अभी उसे सास की सच्ची परख बाकी थी.

दिव्या की शादी हुए 15 दिन हो चुके थे. सौरभ एसबीआई बैंक में मैनेजर था. एक तो मार्च का महीना था, दूसरे सौरभ को खास रुचि भी नहीं थी, इसलिए दिव्या ने हनीमून के लिए कहीं बाहर जाने के बारे में सोचा ही नहीं.वैवाहिक जीवन के स्वर्गीय सुख देने वाले उस के शुरुआती रोमांचकारी दिन बड़े मजे से उत्साह के साथ बीत रहे थे.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...