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“लड़कियां हमें चाहिए ही नहीं. बस, बेटे होने चाहिए. लड़की को पढ़ाओ, खर्च करो, उस की शादी करो और उस का फायदा उठाए उस की ससुराल वाले. ससुराल वालों के नखरे सहो, सो अलग. बेकार में सारी जिंदगी खपाने का कोई शौक नहीं हमें. मैं नहीं चाहती कि मेरा समर पूरी जिंदगी लड़कियों की वजह से खटता रहे,” सासुमां के तर्क उसे भयभीत कर गए थे.

“मां, आप भी तो लड़की हैं. आप ऐसा कैसे कह सकती हैं? आप भी तो ब्याह कर इस घर में आई हैं और अपने बेटे के लिए भी तो आप भी लड़की को ही ब्याह कर लाई हैं. अगर आप के मांबाप ने आप को भी कोख में ही मार दिया होता या मुझे भी जन्म नहीं लेने दिया होता तो न ससुरजी की शादी होती और न ही समर की. लड़कियां नहीं होंगी तो लड़के कुंआरे ही रह जाएंगे. सोचिए मां, अगर आप को जन्म नहीं दिया गया होता तो... यह खयाल ही कितना पीड़ादायक है,” मीरा के ऐसा कहते ही घर में भूचाल आ गया था.

“वार्निंग दे रहा हूं तुम्हें, मां से कभी बहस करने की कोशिश मत करना,” समर की आंखों में उठती ज्वालाओं ने उस के थोड़ेबहुत साहस को राख कर दिया था. 2 बेटियां अजन्मी ही मार दी गईं और वह अपनी बेबसी पर केवल कराह ही पाई. अपनी ही कोख पर अधिकार नहीं था उसे, अपने रक्तमांस को सांस लेनेदेने का अधिकार नहीं था उसे. कोई इतना क्रूर कैसे हो सकता है वह भी जब हर तरफ बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का शोर है. बेटियां बेटों से कहीं ज्यादा टेलेंटेड साबित हो रही हैं और हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं. यही नहीं, बेटों से कही ज्यादा पेरेंट्स का ख्याल रखती हैं, फिर भी इन लोगों की ऐसी सोच है.

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