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अखबार पढ़ते हुए विपिन का मुंह आज फिर लटक गया, "ये रेप की घिनौनी घटनाएं हर रोज़ की सुर्खियां बनती जा रही हैं. न जाने कब हमारे देश में बेटियां सुरक्षित होंगी. अखबार के पन्ने पलटो, तो केवल जुर्म और दुखद समाचार ही सामने होते हैं."

"अब छोड़िए भी. समाज है, संसार है, कुछ न कुछ तो होता ही रहेगा," दामिनी ने चाय का कप थमाते हुए कहा. "तुम समझती नहीं हो. मेरी चिंता केवल समाज के दायरे में नहीं, अपनी देहरी के भीतर भी लांघती है. जब घर में एक नवयौवना बेटी हो तो मातापिता को चिंता रहना स्वाभाविक है. सृष्टि बड़ी हो रही है. हमारी नज़रों में भले ही वह बच्ची है और बच्ची रहेगी, लेकिन बाहर वालों की नजरों में वह एक वयस्क है. जब कभी मैं उसे छोड़ने उस के कालेज जाता हूं तो आसपास के लोगों की नजरों को देख कर असहज हो उठता हूं. अपनी बेटी के लिए दूसरों की नजरों में अजीब भाव देखना मेरे लिए असहनीय हो जाता है. कभीकभी मन करता है कि इस ओर से आंखें मूंद लूं किंतु फिर विचार आता है कि शुतुरमुर्ग बनने से स्थिति बदल तो नहीं जाएगी."

"कितना सोचते हैं आप. अरे इन नजरों का सामना तो हर लड़की को करना ही पड़ता है. हमेशा से होता आया है और शायद सदा होता रहेगा. जब मैं पढ़ती थी तब भी गलीमहल्ले और स्कूलकालेज के लड़के फब्तियां कसते थे. यहां तक कि पिताजी के कई दोस्त भी गलत नजरों से देखते थे और बहाने से छूने की कोशिश करने से बाज नहीं आते थे. आज की लड़कियां तो काफी मुखर हैं. मुझे बहुत अच्छा लगता है यह देख कर कि लड़कियां अपने खिलाफ हो रहे जुल्मों के प्रति न केवल सजग हैं बल्कि आगे बढ़ कर उन के खिलाफ आवाज भी उठाती हैं. फिर चाहे वे पुलिस में रिपोर्ट करें या सोशल मीडिया पर हंगामा करें. यह देख कर मेरा दिल बेहद सुकून पाता है कि आज की लड़की अपनी इज्जत ढकने में नहीं, बल्कि जुल्म न सहने में विश्वास रखती है. हमारा जमाना होता तो किसी भी जुल्म के खिलाफ बात वहीं दफन कर दी जाती. घर के मर्दों को तो पता भी न चलता. मां ही चुप रहने की घुट्टी पिला दिया करती."

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