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बच्चे शुरूशुरू में कभीकभार उन के पास आ जाते थे. फिर धीरेधीरे वे भी अपने परिवार में व्यस्त हो गए. वैसे भी मां ही तो सेतु होती है बच्चों को बांधने के लिए. वह तो उन्हीं के पास थी. मधुर सोचते उन के स्वभाव में यदि निर्जीवता थी तो श्यामला तो जैसे पत्थर हो गई थी. क्या कभी श्यामला को इतने सालों का साथ, उन का संसर्ग, स्पर्श नहीं याद आया होगा. ऐसी ही अनेक बातें सोचतेसोचते न जाने कब नींद ने उन्हें आ घेरा.

अतीत में भटकते मधुप को बहुत देर से नींद आई थी. सुबह उठे, तो सिर बहुत भारी था. नित्यकर्म से निबट कर मधुप बाहर बैठ गए. बिरुवा वहीं नाश्ता दे गया.

‘‘साहब,’’ बिरुवा झिझकता हुआ बोला, ‘‘एक बार मालकिन को मना लाने की कोशिश कीजिए, हम भी कब तक रहेंगे, अपने बालबच्चों, परिवार के पास जाना चाहते हैं. आप कैसे अकेले रहेंगे. अगर हो सके तो आप ही मालकिन के पास चले जाइए.’’

उन्होंने चौंक कर बिरुवा का चेहरा देखा. इस बार बिरुवा रुकने वाला नहीं है, वह जाने के लिए कटिबद्ध है. देरसवेर बिरुवा अब अवश्य चला जाएगा. कैसे और किस के सहारे काटेंगे वे अब बाकी की जिंदगी. एक विराट प्रश्नचिह्न उन के सामने जैसे सलीब पर टंगा था. सामने मरुस्थल की सी शून्यता थी, जिस में दूरदूर तक छांव का नामोनिशान नहीं था. आखिर ऐसी मरुस्थल सी जिंदगी में वे प्यासे कब तक और कहां तक भटकेंगे अकेले.

2 दिन इसी सोच में डूबे रहे. दिल कहता कि श्यामला को मना लाए. पर कदम थे कि उठने से पहले ही थम जाते थे. क्या करें और क्या न करें, इसी ऊहापोह में अगले कई दिन गुजर गए. सोचते रहते, क्या उन्हें श्यामला को मनाने जाना चाहिए, क्या एक बार फिर प्रयत्न करना चाहिए. अपने अहं को दरकिनार कर इतने वर्षों के बाद जाते भी हैं और अगर श्यामला न मानी तो... क्या मुंह ले कर वापस आएंगे.

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