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लेखिका-सुषमा मुनींद्र

इस तरह वह मित्रों के साथ औडियो कैसेट की दुकान पर खड़ा हो संगीत सुन लेता या अन्य दुकानों पर पसंद की वस्तुएं देखता. किंतु एक दिन उस के विलंब का कारण खोजने बाबूजी निकल पड़े. सर से ज्ञात हुआ कि वे नियत समय तक ही पढ़ाते हैं क्योंकि फिर दूसरा समूह आ जाता है. विदेह घर पहुंचा तो जांच बैठा दी गई. बाबूजी पूछने लगे, ‘सर देर तक पढ़ाते हैं, आज पढ़ाया? तुम ?ठ बोलने लगे हो. इसीलिए कहता हूं, मेरे साथ रहो. आजकल के लड़के तुम्हें बरबाद कर देंगे. ?ाठ, चोरी, मक्कारी, नशा, सट्टा सब सिखा देंगे.’ ‘बाबूजी, मेरे मित्र ऐसे नहीं हैं. सभी भले घरों के हैं,’ विदेह कहता. ‘

वे भले हैं, बुरे तो हम हैं जो तुम्हारे पीछे प्राण दिए दे रहे हैं. हमारी बातें सुनने में कड़वी अवश्य हैं पर तुम्हारा हित करेंगी,’ कहते हुए उग्र कृपाशंकर अगले ही क्षण नरम पड़ जाते, ‘बेटा, तुम हमारे एकलौते पुत्र हो. गलत राह पकड़ोगे तो हमें बहुत पीड़ा होगी. तुम से बहुत आशाएं हैं. अब कभी ?ाठ न बोलना. तुम हमारे प्राणाधार हो.’ ‘प्राणाधार नहीं, बल्कि गुलाम कहें तो उपयुक्त होगा.’ लोग गला फाड़फाड़ कर चिल्ला रहे हैं कि भारत आजाद है. अरे, उसे तो आजादी दिखाई ही नहीं देती. देश भले ही आजाद हुआ हो पर वह तब तक आजाद नहीं हो सकता जब तक अम्माबाबूजी उस के पीछे हाथ धो कर पड़े रहेंगे.’ उसे बस एक ही दिन पसंद रहा है अपना जन्मदिवस. मित्र कितना हंगामा करते थे. लेकिन उसे... उसे बाबूजी किसी मित्र के जन्मदिवस पर भी नहीं जाने देते.

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