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लेखिका-सुषमा मुनींद्र

यदि परसों वह मित्रों के साथ दशहरा का जुलूस देखने चला जाता तो पहाड़ न टूट पड़ता. पर बाबूजी कहां मानने वाले थे. आज उसे स्कूल में कितना नीचा देखना पड़ेगा, लड़के हंसी उड़ाएंगे. कितना खुश था तब वह जब लड़के दशहरे का जुलूस देखने का कार्यक्रम बना रहे थे. उस ने भी हामी भर दी थी. पर बाबूजी ने यह कह गुड़गोबर कर दिया, ‘बेटा, रात में कहां घूमने जाओगे. कितनी तो अपहरण की घटनाएं सुन रहे हैं. बच्चा चोर गिरोह सक्रिय है, दिन में चले जाते तो...’ ‘बाबूजी, आप भी हद कर देते हैं. लाइट क्या दिन में देखी जाती है?’ विदेह ने कहा था. ‘ओह, हां,’ बाबूजी अपने कहे पर हंसने लगे. फिर बोले, ‘तो मेरे साथ चलो, ?ांकी दिखा लाऊंगा. जो कहोगे, खरीद दूंगा.

क्या करूं बेटा, जान बस तुम में ही रहती है.’ विदेह का सारा प्रयास विफल हो गया. जब वह बाबूजी के साथ स्कूटर पर बैठ शहर की सजावट देखने निकला तो उस का उत्साह मर चुका था. वह मुंह फुलाए पीछे बैठा था और बाबूजी कमैंट्री सी कर रहे थे, ‘देखो, गौशाला चौक की ?ांकी... ये भैंसाखाना की...ये सेमरिया चौक की...अच्छी है न...? ?ांकियों के आगे लड़के नाचते चल रह थे. एक ?ांकी के आगे एक ग्वाला ‘अखियां मिलाऊं, कभी अंखियां चुराऊं...’ की धुन पर मस्त ही थिरक रहा था. कितना स्वतंत्र है यह ग्वाला. कितना स्वावलंबी, यह सोच विदेह का जी चाहा स्कूटर से कूद सड़क पर नई उमर की नई फसल की तरह लहराए, ?ामे, नाचे, गाए. पर ऐसा करने से बाबूजी को उस के भीड़ में खो जाने का जोखिम दिखने लगेगा. विदेह को अपनी जिंदगी एकदम निरर्थक, नीरस, उबाऊ लगी अजायबघर के पिंजरे में बंद बंदर की सी.

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