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‘मां, बड़े शहर के लोगों का दिल छोटा होता है, न शुद्ध हवा, न पानी, न खाना. यहां तो मुझे बहुत अच्छा लगता है. इसी वातावरण में तो बड़ा हुआ हूं. मुझे क्यों दिक्कत होगी.’ सचमुच 1 साल के भीतर उस की ख्याति फैल गई. आत्मसमर्पण किए नक्सलियों के लिए ‘अपनालय’ का शुभारंभ किया जिस में मैडिटेशन सैंटर, गोशाला, फलों का बगीचा सबकुछ था उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए. खुद मुख्यमंत्री ने इस का उद्घाटन किया था. प्रदेश में हजारों नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया, पकड़े भी गए. शरद का यही सुप्रयास उस की जान का दुश्मन बन गया. उस दिन सुबह 6 बजे ही घर के हर फोन की घंटियां घनघनाने लगीं. फोन उठाते ही रंजनजी चौंक उठे और उन्हें चौंका देख मैं घबरा गई. ‘क्या? कब? कैसे? जंगल में वह क्या करने गया था.’ हर प्रश्न हृदय पर हथौड़े सा प्रहार कर रहा था. ‘क्या हुआ था उस के साथ?’ मेरी आवाज लड़खड़ा गई. ‘तुम्हारी आह लग गई. शरद का अपहरण हो गया,’ वे फूटफूट कर रो रहे थे. बरसों पहले कही बात उन के मन में धंस गई थी. शायद अपनी करनी से वे भयाकांत भी थे.

इसी कारण उन के मुंह से यह बात निकली. लेकिन मेरा? मेरा क्या? मेरा तो हर तरफ से छिन गया. लग रहा था छाती के अंदर, जो रस या खून से भराभरा रहता है, उस को किसी ने बाहर निकाल कर स्पंज की तरह निचोड़ दिया हो. टीवी के हर चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज में यह खबर प्रसारित हो रही थी. दूसरे दिन अपहरणकर्ता का संभावित स्कैच जारी किया गया. दाढ़ी भरे उस दुबलेपतले चेहरे में भी चमकती उन 2 आंखों को पहचानने में मेरी आंखें धोखा नहीं खा पाईं. मैं ने अनुज को फोन लगाया, उस ने मेरे शक को यकीन में बदला. रहीसही कसर उस के नाम से पूरी हुई- ‘अज्जू भैया’. मैं शरद के मुंह से कई बार यह नाम सुन चुकी थी. ‘बहुत खतरनाक खूंखार इंसान है, इस को किसी तरह पकड़ लिया तो समझो नक्सलियों का खेल खत्म.’ उस ने ही बारूदी सुरंग बिछा कर पैट्रोलिंग पर गए शरद को बंदी बनाया. 2 कौंस्टेबल, 1 ड्राइवर शहीद हुए थे. अनुज आ गया था. नक्सलियों से 2 बार बातचीत असफल रही थी. मुख्यमंत्री की अपील का भी कोई असर नहीं था. अनुज के साथ मिल कर बहुत हिम्मत कर के मैं ने यह निर्णय लिया. मैं ने कलैक्टर साहब से बात की, ‘मुझे वार्त्ता के लिए भेजा जाए,’ पहले तो उन्होंने साफ मना कर दिया, ‘आप? वह भी इस उम्र में, एक खूंखार नक्सली से मिलने जंगल जाएंगी? पता भी है कितनी जानें ले चुका है?

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