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नवीन को बाजार में बेकार घूमने का शौक कभी नहीं रहा, वह तो सामान खरीदने के लिए उसे मजबूरी में बाजारों के चक्कर लगाने पड़ते हैं. घर की छोटीछोटी वस्तुएं कब खत्म होतीं और कब आतीं, उसे न तो कभी इस बात से सरोकार रहा, न ही दिलचस्पी. उसे तो हर चीज व्यवस्थित ढंग से समयानुसार मिलती रही थी.

हर महीने घर में वेतन दे कर वह हर तरह के कर्तव्यों की इतिश्री मान लेता था. शुरूशुरू में वह ज्यादा तटस्थ था लेकिन बाद में उम्र बढ़ने के साथ जब थोड़ी गंभीरता आई तो अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी समझने लगा था.

बाजार से खरीदारी करना उसे कभी पसंद नहीं आया था. लेकिन विडंबना यह थी कि महज वक्त काटने के लिए अब वह रास्तों की धूल फांकता रहता. साइन बोर्ड पढ़ता, दुकानों के भीतर ऐसी दृष्टि से ताकता, मानो सचमुच ही कुछ खरीदना चाहता हो.

दफ्तर से लौट कर घर जाने को उस का मन ही नहीं होता था. खाली घर काटने को दौड़ता. उदास मन और थके कदमों से उस ने दरवाजे का ताला खोला तो अंधेरे ने स्वागत किया. स्वयं बत्ती जलाते हुए उसे झुंझलाहट हुई. कभी अकेलेपन की त्रासदी यों भोगी नहीं थी. पहले मांबाप के साथ रहता था, फिर नौकरी के कारण दिल्ली आना पड़ा और यहीं विवाह हो गया था.

पिछले 8 वर्षों से रुचि ही घर के हर कोने में फुदकती दिखाई देती थी. फिर अचानक सबकुछ उलटपुलट हो गया. रुचि और उस के संबंधों में तनाव पनपने लगा. अर्थहीन बातों को ले कर झगड़े हो जाते और फिर सहज होने में जितना समय बीतता, उस दौरान रिश्ते में एक गांठ पड़ जाती. फिर होने यह लगा कि गांठें खुलने के बजाय और भी मजबूत सी होती गईं.

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