मैं अपने परिवार के साथ मुंबई में किराए पर रह कर किसी तरह जीवनयापन कर रहा था कि अचानक एक दिन मेरी पत्नी का एक ऐक्सिडैंट में निधन हो गया. मेरे बच्चे छोटे थे. लोगों ने मुझे अपने पैतृक घर लौट जाने की सलाह दी. मेरी आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय थी. ट्रेन के टिकट के भी पैसे मेरे पास नहीं थे.  दोस्तों ने चंदा कर किसी तरह घर लौटने की व्यवस्था कर दी थी. मैं अवध ऐक्सप्रैस द्वारा मुंबई से लखनऊ के लिए जनरल डब्बे का टिकट ले कर रवाना हुआ. ट्रेन चंबल पहुंचने वाली थी. तब सुबह के तकरीबन 7 बजे थे. एक छोटे से स्टेशन पर गाड़ी रुकते ही उस में कुछ लुटेरे चढ़ आए. जाड़े का मौसम होने की वजह से वे सभी शौल ओढ़े हुए थे. इसलिए किसी को उन पर शक नहीं हुआ.

मेरे पास के दोनों स्लीपरों पर गोरखपुर के कुछ यात्री अपने परिवार के साथ यात्रा कर रहे थे जिन में महिलाओं ने सोने के टौप्स वगैरह भी पहन रखे थे और पुरुष आपस में ताश के पत्तों से जुआ खेल रहे थे. लुटेरे बड़े ध्यान से उन्हें देखते रहे फिर उन में से 4 लोग उन्हीं के साथ बैठ कर जुआ खेलने लगे. बाकी ने दोनों तरफ की खिड़कियां बंद कर के पहरेदारी शुरू कर दी.

लुटेरों ने कब उन यात्रियों को लूट लिया, किसी को पता तक नहीं चला, क्योंकि एक बदमाश ने अपना शौल फैला कर स्लीपरों को परदे की तरह ढक लिया था. रास्ते में चंबल स्टेशन आया तो न बदमाशों ने खिड़कियां खोलीं  और न ही किसी को उतरने दिया. यहां तक कि स्टेशन पर घूम रहे पुलिस वालों को भी अंदर नहीं आने दिया. तभी एक चाय वाला आया तो मेरी 3 वर्षीय बेटी ने चाय पीने की जिद की. मेरे कहने पर चाय वाले ने चाय खिड़की से अंदर बढ़ा दी. मैं ने ऊपर की जेब से 3 रुपए निकाल कर दे दिए. तभी मेरे 4 वर्षीय बेटे ने भी चाय का आग्रह किया. मैं ने उसे समझाते हुए कहा, ‘‘बेटा, मेरे पास ज्यादा पैसे नहीं हैं, इसी में से थोड़ी चाय तुम भी पी लेना.’’

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