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वह खिलखिलाता सन्नाटा आज भी उस की आंखों के सामने हंस रहा था. बच्चे तो बसेरा छोड़ चुके थे. पति 10 वर्ष पहले साथ छोड़ गए. धूप सेंकतेसेंकते वह न जाने सुधबुध कहां खो बैठी थी. बड़बड़ाए जा रही थी, ‘बड़ी कुत्ती चीज है. दबीदबी न जाने कब उभर आती है. चैन से जीने भी नहीं देती. जितना संभालो उतना और चिपटती जाती है. खून चूसती है. उस से बचने का एक ही विकल्प है. मार डालो या उम्रभर मरते रहो. मारना कौन सा आसान है. यह शै बंदूकचाकू से मरने वाली थोड़ी ही है. स्वयं को मार कर मारना पड़ता है उसे.

हर कोई मार भी नहीं सकता. शरीफों को बहुत सताती है. बदमाशों के पास फटकती नहीं. पीछे पड़ती है तो मधुमक्खियों जैसे. निरंतर डंक मारती रहती है. नींद भी उड़ा देती है. नींद की गोली भी काम नहीं करती है. वह जोंक की तरह खून चूसती है. चाम चिचड़ी की भांति चिपक जाती है.’

वह बहुत कोशिश करती है उसे दूर भगाने की पर वह रहरह कर उसे घेर लेती. वह क्या चीज है जो इतना परेशान करती रहती है उसे. मानो तो बहुत कुछ और न मानो तो कुछ भी नहीं.

वह सोचती है, मां हूं न, इसलिए तड़प रही हूं. भूल तो हुई थी मुझ से. सोच कुंद हो गई थी. समय का चक्र था. उसे पलटा भी नहीं जा सकता. देखो न, उस वक्त तो बड़ी आसानी से सोच लिया था, मां हूं. उस वक्त मुझे अपनी बच्ची की चिंता कम, बहुरुपिए समाज की चिंता अधिक थी. अपनी कोख की जायी का दुख चुपचाप देखती रही. बच्ची के दुख पर समाज हावी हो गया. अरसे से वही कांटा चुभ रहा है. मन ही मन हजारों माफियां मांग चुकी हूं. किंतु यह ‘ईगो’ कहो या ‘अहं’, नामुराद बारबार आड़े आ खड़ा हो गया. दोषी तो थी उस की. फिर भी दोष स्थिति पर मढ़ती आई. शुक्र है, कोई सुन नहीं रहा. खुद से ही बातें कर रही हूं.

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