इस वीरान घाटी में रहते हुए मुझे तकरीबन एक साल हो गया था. वहां तरहतरह के किस्से सुनने को मिलते थे. घाटी के लोग तमाम अंधविश्वासों को ढोते हुए जी रहे थे.

तांत्रिक और पाखंडी लोग अपने हिसाब से तरहतरह की कहानियां गढ़ कर लोगों को डराते रहते थे. वह घाटी ओझाओं और पुजारियों की ऐशगाह थी. पढ़ाईलिखाई का वहां माहौल ही नहीं था.

जब मैं घाटी में आया था, तो लोगों द्वारा मुझे तमाम तरह की चेतावनियां दी गईं. मुझे बताया गया कि मधुगंगा के किनारे दिन में पिशाच नाचते रहते हैं और रात में भूत सड़क पर खुलेआम बरात निकालते हैं.

एकबारगी तो मैं बुरी तरह से डर गया था, लेकिन नौकरी की मजबूरी थी, इसलिए मुझे वहां रुकना पड़ा. बस्ती से तकरीबन सौ मीटर दूर मेरा सरकारी मकान था. वहां से मधुगंगा साफ नजर आती थी. मेरे घर और मधुगंगा के बीच 2 सौ मीटर चौड़ा बंजर खेत था, जिस में बस्ती के जानवर घास चरते थे.

मेरे घर से एकदम लगी कच्ची सड़क आगे जा कर पक्की सड़क से जुड़ती थी. अस्पताल भी मेरे घर से आधा किलोमीटर दूर था.

मैं एक डाक्टर की हैसियत से वहां पहुंचा था. जाते ही डरावनी कहानियां सुन कर मेरे होश उड़ गए. कुछ दिनों तक मैं वहां पर अकेला रहा, लेकिन मुझे देर रात तक नींद नहीं आती थी.

विज्ञान पढ़ने के बावजूद वहां का माहौल देख कर मैं भी डरने लगा था. रात को जब खिड़की से मधुगंगा की लहरोें की आवाज सुनाई देती, तो मेरी घिग्घी बंध जाती थी. आखिरकार मैं ने गांव के ही एक नौजवान को नौकर रख लिया. वह भग्गू था. बस्ती के तमाम लोगों की तरह वह भी घोर अंधविश्वासी निकला.

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