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एक दिन जब मोनिका ने अपने पति डा. सुधीर से कहा था, ‘‘शादी होने से ही अगर आप यह समझ लें कि मैं आप की दासी बन गई हूं तो यह आप की गलतफहमी है. मैं आजादखयाल औरत हूं और मर्द की ताबेदारी में रह कर अपनी जिंदगी सड़ा देने के खिलाफ हूं,’’ तब सुधीर थोड़ी देर हक्काबक्का सा रह गया था. फिर उस ने उसे समझाते हुए कहा था, ‘‘मैं समझा नहीं, मोनिका. तुम्हें किस बात का कष्ट है? इतना बड़ा मकान है, कार है, अपने लड़के जैसी उम्र का देवर है. और अब तो हमारी एक छोटी सी बच्ची ऋचा भी है. सभी तो तुम्हारा मुंह जोहते रहते हैं. हां, मैं जरूर जरा व्यस्त रहता हूं डाक्टर होने के नाते,’’ फिर जरा सूखी हंसी हंसते हुए उस ने यह भी जोड़ दिया, ‘‘और रही मर्द की ताबेदारी, सो, मोनिका, मेरे घर में तुम्हीं एक ‘मर्द’ हो. मैं तो एक परछाईं भर हूं.’’

मोनिका ने कुछ तल्खी से कहा था, ‘‘ये सब तुम मर्दों की चालाकी भरी बातें हैं. असलियत में ये सबकुछ, जो तुम ने गिना डाला, तुम्हारा है, तुम्हारा काम है. मैं अगर उस में फंसी रहूं तो वह मेरे लिए बंध जाना मात्र हुआ. मैं तुम्हारी बातों में भूली रह कर इस बंधन में पड़ी रहूं तो मैं ने अपने लिए, अपना काम क्या किया. आधुनिक स्त्री, मर्द की इस धोखाधड़ी को पहचान गई है. इसीलिए तो उस ने नारीमुक्ति का नारा बुलंद किया है. मैं ने जब शादी की तब तक बंधन के स्वरूप से परिचित न थी पर अब मैं खूब जान गई हूं और इसीलिए मैं मुक्ति की ओर जाना चाहती हूं, समझे, डाक्टर साहब?’’ सुधीर के मुख पर मुसकान आ गई थी, वह शायद अपने भीतर के तनाव को हलका करने का प्रयत्न कर रहा था. ‘‘समझा तो मैं अब भी नहीं. मैं ने अब तक सुन रखा था कि पुरुष के लिए स्त्री ही बंधनस्वरूप है. परंतु आज की स्त्री यदि कहे कि नारी के लिए पुरुष एक बंधन है और उस से उसे मुक्ति चाहिए तब तो मुझे सचमुच समझ में नहीं आता कि यह मुक्ति क्या बला है. खैर, तुम मेरी तरफ से आजाद हो. जो भी चाहो, कर सकती हो, जहां भी चाहो, रह सकती हो.’’

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