उस चिड़िया के बच्चे की करण जीजान से देखभाल कर रही थी पर बाकी सभी लोगों को उस के इस व्यवहार पर हंसी आ रही थी. क्या यह उस का पागलपन था कि वह उस तुच्छ से चिडि़या के बच्चे को इतना महत्त्व दे रही थी या वास्तव में जीव प्रेम.

‘टिंग टांग...टिंग टांग’...घंटी बजते ही मैं बोली, ‘‘आई दीपू.’’

मगर जब तक दरवाजा न खुल जाए, दीपू की आदत है कि घंटी बजाता ही रहता है. बड़ा ही शैतान है. दरवाजा खुलते ही वह चहकने लगा, ‘‘मौसी, आप को कैसे पता चलता है कि बाहर कौन है?’’

मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘पता कैसे नहीं चलेगा.’’

तभी अचानक मेरे मुंह से चीख निकल गई, मैं ने फौरन दीपू को उस जगह से सावधानी से परे कर दिया. वह हैरान हो कर बोला, ‘‘क्या हुआ, मौसी?’’

मैं आंगन में वहीं बैठ गई जहां अभीअभी एक चिडि़या का बच्चा गिरा था. मैं ने ध्यान से उसे देखा. वह जिंदा था. मैं फौरन ठंडा पानी ले आई और उसे चिडि़या के बच्चे की चोंच में डाला. पानी मिलते ही उसे कुछ आराम मिला. मैं ने फर्श से उठा कर उसे एक डब्बे पर रख दिया. फिर सोच में पड़ गई कि अगर दीपू का पांव इस के ऊपर पड़ गया होता तो? कल्पना मात्र से ही मैं सिहर उठी.

मैं ने ऊपर देखा. पड़ोसियों का वृक्ष हमारे आंगन की ओर झुका हुआ था. शायद उस में कोई घोंसला होगा. बहुत सारी चिडि़यां चूंचूं कर रही थीं. मुझे लगा, जैसे वे अपनी भाषा में रो रही हैं. पशुपक्षी बेचारे कितने मजबूर होते हैं. उन का बच्चा उन से जुदा हो गया पर वह कुछ नहीं कर पा रहे थे.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...