जितने मुंह उतनी बातें हो रही थीं. कसबे में एक हलचल सी मची हुई थी. लोग समूह बना कर आपस में बातें कर रहे थे. एक आदमी ने कहा, ‘‘भैया, धरमकरम तो अब रह नहीं गया है. क्या छूत, क्या अछूत, सभी एकसमान हो गए हैं.’’ ‘‘तुम ठीक कहते हो. कलियुग आ गया है भाई, कलियुग. जब धरम के जानकार ऐसा कदम उठाएंगे, तो हम नासमझ कहां जाएंगे?’’ दूसरे आदमी ने कहा. ‘‘मुझे तो लगता है कि पंडितजी सठिया गए हैं. लोग कहते हैं कि बुढ़ापे में आदमी की अक्ल मारी जाती है, तभी वह ऊलजलूल हरकतें करने लगता है. अब पंडितजी भांग के नशे में डगमगाते हुए जा पहुंचे दलित बस्ती में...’’ तीसरे आदमी ने कहा. दरअसल, एक दिन पंडित द्वारका प्रसाद घर से मुफ्त में भांग पीने निकले थे. पूजापाठ की तरह यह भी उन का रोज का काम था.

छत्री चौक पर भांग की दुकान का मालिक राधेश्याम जब तक पंडितजी को मुफ्त में 2 गिलास भांग नहीं पिलाता था, तब तक वह किसी दूसरे ग्राहक को भांग नहीं बेचता था. उस का भी यह रोज का नियम था और एक विश्वास था कि जिस दिन पंडितजी उस की भांग का भोग लगा लेते हैं, उस दिन उस की अच्छीखासी कमाई हो जाती है. कभी पंडितजी दूसरे गांव चले जाते या बीमार पड़ जाते, तो राधेश्याम पंडितजी के नाम की भांग दुकान के सामने मंदिर के बाहर बैठे भिखारियों में बांट देता था. कसबे में पंडितजी की इज्जत थी. उन का अच्छाखासा नाम था.

लोग जन्म से ले कर मृत्यु तक के सभी पूजापाठ उन से ही कराना पसंद करते थे. वे जब भी किसी काम से घर से निकलते, तो राह में आतेजाते सब लोग उन्हें प्रणाम करते थे. वे अपनी बढ़ी हुई तोंद पर एक हाथ फेरते हुए दूसरे हाथ को आशीर्वाद की मुद्रा में ला कर मंदमंद मुसकराते आगे बढ़ जाते थे. आज पंडितजी को घर से निकलने में देर हो गई थी, इसलिए उन्हें बड़ी जोर से भांग की तलब सता रही थी. वे बड़ी तेजी से छत्री चौक की ओर बढ़े चले जा रहे थे. रास्ते में उन्हें कौन प्रणाम कर रहा था या नहीं, इस का उन्हें जरा भी एहसास नहीं था. उन्हें तो मुफ्त के 2 गिलास भांग नजर आ रही थी. देर होने के चलते उन्हें यह भी डर सता रहा था कि कहीं राधेश्याम उन के हिस्से की भांग भिखारियों में न बांट दे.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...