0:00
12:24

‘‘मे आई कम इन, सर?’’, मेहता कोचिंग सैंटर के दरवाजे पर खड़े वरुण ने झिझकते हुए पूछा.

‘‘यस, कम इन’’, राजीव मेहता सर की कोचिंग खासी प्रसिद्ध थी. यहां से कोचिंग करना मतलब प्रबंधन के प्रमुख संस्थानों में दाखिला पक्का. यहां दाखिला मिलना आसान नहीं था, जिन छात्रों के 12वीं में 90 प्रतिशत से ऊपर अंक आते, उन्हें ही यहां कोचिंग हेतु बुलाया जाता. फिर बाकायदा साक्षात्कार होता. केवल छात्र का ही नहीं, बल्कि उस के अभिभावकों का भी साक्षात्कार लिया जाता.

कोचिंग की आवश्यकता वैसे तो पढ़ाई में कमजोर विद्यार्थियों को पड़ती है किंतु कोचिंग का व्यवसाय कुछ ऐसा है कि अच्छा नाम कमाने हेतु उन्हें आवश्यकता पड़ती है मेधावी छात्रों की. साथ ही कोचिंग को बखूबी चलाने के लिए पैसा चाहिए, इसलिए ऐसे विद्यार्थी भी चाहिए जो संस्थान को भारी फीस दे सकें. भारत में जनता इतनी है कि हर जगह सीटों की कमी पड़ जाती है. लंबी कतारों में खड़े लोग अपने बच्चों का दाखिला करवाने को लालायित रहते हैं. इसीलिए कोचिंग में दाखिला मिलने पर ऐसी प्रसन्नता होती है मानो आगे की शिक्षा मुफ्त हो.

राजीव सर की कोचिंग की भारी फीस भरनी हर किसी के बूते की बात कहां थी. जब वरुण का नाम काउंसिलिंग के लिए आया तो उस का पूरा परिवार बहुत खुश हुआ. वह भी खुश था कि अब उस का दाखिला एक अच्छे प्रबंधन संस्थान में हो सकेगा.

वरुण पढ़ाई में बहुत मेधावी नहीं था. परिश्रम से ही वह अपने वर्तमान स्थान तक पहुंचा था. इस कोचिंग सैंटर में दाखिले के बाद भी वरुण ने परिश्रम करने की ठानी थी. दाखिले की फीस का इंतजाम पापा ने अपनी पीएफ स्कीम से उधार ले कर किया था और बाद की फीस हेतु वरुण के नाम पर छात्र लोन के लिए अर्जी भी दे दी थी. कोचिंग का समय शाम से ले कर रात तक का होता था. यहां पढ़ाने के लिए बाहर से शिक्षक आया करते थे. धीरेधीरे पता चला कि दिन में ये शिक्षक अन्य प्रबंधन संस्थान में पढ़ाया करते थे, तभी इन्हें वहां की तत्कालीन शिक्षा प्रणाली का अनुमान रहता. ये उसी हिसाब से कोचिंग में भी पढ़ाया करते.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...