कई दशकों से अपनी हास्य कविताओं के जरिए लोगों को गुदगुदाने वाले सुरेंद्र शर्मा का मानना है कि हास्य का स्तर गिरता जा रहा है. ऐसा क्यों हो रहा है, जानते हैं उन्हीं की जबानी :

आप के लिए हास्य की क्या परिभाषा है?

हास्य की 2 विधाएं हैं, हास्य और व्यंग्य. इस में मूल रूप से जो अंतर है वह यह है कि व्यंग्य सोचने पर विवश करता है और हास्य सोचने से मुक्त करता है. हास्य को आप किस तरह से लेते हैं, आप हास्य कर रहे हैं कि उपहास कर रहे हैं. मैं उपहास को हास्य नहीं मानता. वह मखौल उड़ाना होता है. सब से बड़ी बात यह है कि हास्य का मतलब यह नहीं कि किसी को पीड़ा पहुंचाई जाए. किसी की तकलीफ पर हंसा जाए. किसी पर हंसना कितना खतरनाक हो सकता है, उस का पता इस बात से लगता है कि द्रौपदी की एक गलत हंसी ने महाभारत करवा दिया और कितना खूनखराबा हुआ.

हिंदी साहित्य का लेखक हंसनाहंसाना क्यों भूल गया है?

लोग भूले नहीं हैं, अब लिखा नहीं जा रहा है. लिखा इसलिए नहीं जा रहा है क्योंकि आदमी कुंठित हो गया है. कुंठित व्यक्ति जीवन में कभी भी स्वस्थ हास्य नहीं लिख सकता. उस का हास्य कहीं न कहीं पीड़ा पहुंचाता है. इस की वजह यही है कि पहले हम अपने सुख से सुखी रहते थे और आज हम दूसरे के सुख से दुखी हैं. सुख की परिभाषा बदल गई है. सुख हम उसे कहते हैं जो दूसरे के पास है. मुझे अपनी 2 गाडि़यां सुख नहीं देतीं, पड़ोसी की 3 गाडि़यां तकलीफ देती हैं.

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