अंडर-17 विश्वकप फुटबौल टूर्नामैंट में भले ही सिवा मेजबानी के फख्र के कुछ और हासिल न हुआ हो लेकिन खिलाडि़यों के जुझारूपन ने भविष्य के लिए उम्मीदें जगाने में तो कामयाबी पा ही ली. मैदानी खेलों में जिस मेहनत, लगन और कमिटमैंट की जरूरत होती है वह इन नवोदित फुटबौल खिलाडि़यों में स्पष्ट देखने को मिला.

इन किशोरों की परवरिश कोई नाजों या वैभव में नहीं हुई है. इन में से अधिकतर खिलाड़ी अभावों में पले हैं. इन्हें किसी अंतर्राष्ट्रीय टूर्नामैंट में खेलते देखना ही हैरत की बात है. महिला पहलवान गीता और बबीता फोगट की तरह ये उन घरों से निकल कर मैदान तक आए हैं जहां जिंदा रहना ही किसी संघर्ष से कम नहीं होता.

मिसाल के तौर पर अंडर-17 के भारतीय फुटबौल टीम के अमरजीत सिंह क्याम को ही लें, जान कर हैरत होती है कि मणिपुर के थाउबाल जिले के हाओखा ममांग नाम के छोटे से और पिछड़े गांव में जन्मे अमरजीत के पिता पेशे से मामूली किसान हैं और घर में चूल्हा रोजाना जले इस के लिए उन की मां घर से 25 किलोमीटर दूर इंफाल जा कर रोजाना मछलियां बेचती हैं. खेतीकिसानी से बचे वक्त में अमरजीत के पिता पैसा कमाने के लिए कारपैंटरी का काम करते हैं. अमरजीत के फुटबौल के प्रति जनून को देखते हुए गरीब मांबाप ने और मेहनत की और बेटे का सपना पूरा करने के लिए दिनरात हाड़तोड़ मेहनत की.

इसी तरह अंडर-17 के तेजतर्रार स्ट्राइकर अनिकेत जाधव तो और भी ज्यादा गरीब व अभावग्रस्त परिवार से हैं. बचपन से ही अनिकेत को फुटबौल का चस्का लग गया था और इस खेल में कुछ कर गुजरने का सपना वे देखने लगे थे.

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