पूरी दुनिया रंगभेद और नस्लभेद की समस्या से जूझ रही है. विज्ञान और तकनीक ने दुनिया को कहां से कहां पहुंचा दिया है पर नस्लभेद के मामले में हम वहीं खड़े हैं. क्रिकेट या अन्य खेलों की बात करें तो इस का लंबा इतिहास रहा है. रूसी दर्शकों का काली चमड़ी वाले खिलाडि़यों के प्रति बुरा रवैया रहा है. ऐसे में रूस में अगले साल होने वाली विश्वकप फुटबौल प्रतियोगिता क्या नस्लभेदी टिप्पणियों से ऊपर उठ पाएगी, यह बड़ा सवाल है.

इन दिनों भारत में इंडियन सुपर लीग यानी आईएसएल की खुमारी है. चेन्नई में नौर्थईस्ट युनाइटेड और चेन्नई एफसी के बीच मैच खेला जा रहा था. इसी दौरान नौर्थईस्ट युनाइटेड टीम को सपोर्ट कर रही लड़कियों के साथ कुछ लड़कों ने अभद्र व नस्लभेदी कमैंट किए. खिलाडि़यों के साथसाथ प्रशंसक भी इस में पीछे नहीं रहते.

खिलाडि़यों को अपनी प्रतिभा के बल पर ख्याति मिल रही है, न कि अपने रंग, जाति के आधार पर. लेकिन यत्रतत्र नस्लभेद की कोई न कोई घटना घट ही जाती है.

नस्लभेद का सब से शर्मनाक उदाहरण 1936 के बर्लिन ओलिंपिक में 4 स्वर्ण पदक जीतने वाले जेसी ओवेंस के साथ अमेरिकी व्यवहार के रूप में सामने आया था. हिटलर ने जेसी ओवेंस के साथ हाथ तक नहीं मिलाया था. अमेरिका के राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रुजवेल्ट ने भी जेसी से मिलने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी.

यहां तक कि जेसी जब एक बार अपनी पत्नी के साथ रेस्टोरैंट गए थे तब उन्हें मुख्यद्वार के बजाय पीछे के दरवाजे से प्रवेश दिया गया था. यह व्यवहार उस देश में हुआ जो समानता और मानवाधिकार का सब से बड़ा पोषक होने का दंभ भरता है. क्रिकेट की दुनिया में भी ऐसे कई उदाहरण हैं जो खेल के लिए शर्मनाक है. इंगलैंड के फास्ट बौलर जेम्स एंडरसन

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