वक्त बदला, समाज बदला और बदल गए बचपन के खेल. तकनीक ने जहां काम को आसान बनाया है वहीं कुछ मुश्किलें भी पैदा की हैं. खासकर बचपन को सब से ज्यादा प्रभावित किया है.

एक समय था जब बच्चे खेल के मैदानों में घंटों अपने दोस्तों के साथ गिल्ली डंडा, कंचा, कबड्डी, छुपनछिपाई, पिट्ठू, चोरसिपाही, सांपसीढ़ी और न जाने क्याक्या खेलते थे. खेल में इतना मस्त रहते थे कि खानेपीने तक की फुरसत नहीं रहती थी, पर अब ऐसा नहीं है.

आज के बच्चे मोबाइल, इंटरनैट, लैपटौप व कंप्यूटर में सिमट कर रह गए हैं. उन की दुनिया अब एक कमरे में सिमट गई है. वे अकेलेपन का शिकार हो चले हैं.

शारीरिक गतिविधियों के नाम पर कुछ भी नहीं हो रहा. ऊपर से बर्गर, पिज्जा, चाऊमीन, चीज, बटर व सौस के बिना दालरोटी, चावल व फलसब्जी उन्हें सुहाता नहीं. ऐसे में मानसिक के साथसाथ शारीरिक बीमारियों से भी वे ग्रसित हो रहे हैं. अब तो मोबाइल या इंटरनैट में सामान्य गेम को कोई हाथ तक नहीं लगाता. अब हिंसक गेम को ज्यादातर तवज्जुह दे रहे हैं. इस गेम को खेलने के लिए उन्हें अकेलापन चाहिए, इसलिए वे अपनेआप को कमरे बंद कर लेते हैं या फिर छत या दूसरी जगह कहीं जा कर इस गेम को खेलते हैं. यही वजह है कि हर रोज नएनए गेम ईजाद हो रहे हैं.

इस से बच्चों में दिनोंदिन हिंसक प्रवृत्ति बढ़ रही है. आएदिन पत्रपत्रिकाओं में पढ़ने को मिल जाता है कि घंटों बैठ कर गेम खेलना बच्चों की मृत्यु का कारण बना.

हिंसक गेम खेलने वाले बच्चे अब हिंसक तसवीरों को देख कर विचलित नहीं होते बल्कि उन्हें मजा आता है, इसलिए बच्चे अब अपना धैर्य खोते जा रहे हैं. अपनी बात को मनवाने के लिए वे मातापिता से पहले जिद करते हैं और जब मातापिता उन की बात को नहीं मानते हैं तो वे हिंसक प्रवृत्ति को अपनाने में पीछे नहीं रहते. ऊंची आवाज में बोलना और धमकी देना तो आम बात हो गई है. धीरेधीरे यही रवैया उन के लिए घातक साबित होता है.

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