कोई वजह नहीं कि नक्सलियों से किसी तरह की हमदर्दी रखी जाए जो बंदूक की नोक पर शोषकों के खात्में का ख्वाब देखते और दिखाते हैं. हिंसा तो आखिर हिंसा है, उस से किसी समस्या का समाधान नहीं होता. वहीं, कोई वजह नहीं कि 28 अगस्त को गिरफ्तार किए गए उन 5 विचारकों, लेखकों व मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी से, सिर्फ इसलिए कि उन पर एक ब्रिगेड ने अरबन नक्सल का बिल्ला लगा दिया, असहमति न जताई जाए जो बिलकुल अहिंसकरूप से गरीब आदिवासियों और दलितों के हितों के लिए वैचारिक व बौद्धिक रूप से काम कर रहे थे.

देश में इन दिनों धर्म और जाति के नाम पर अफरातफरी मची हुई है जिस पर काबू पाने में सरकार सफल नहीं हो पा रही है. ऐसा सिर्फ इसलिए हो रहा है कि हल्ला और बोलबाला सिर्फ पंडेपुजारियों व भगवाधारियों का है. हो वही रहा है जो वे चाहते हैं और इस के पीछे उन के निहित स्वार्थ हैं.

लोकतंत्र की एक अनिवार्यता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है जिस का ढोल तो खूब पीटा जाता है, लेकिन कानून की आड़ में मुश्कें उन लोगों की कसी जाती हैं जो सत्ताधारी दल की विचारधारा और सिद्धांतों से असहमत रह कर खामोशी से अपना काम करते रहते हैं.

ये वे बुद्धिजीवी लेखक, अध्यापक, वकील, वक्ता, पत्रकार हैं जो जागरूकता और समानता के अधिकार की पैरवी करते हैं. इन्हें कभी सड़कों या जंगलों में हथियार चलाते नहीं देखा गया था, न ही ये बारूदी सुरंग बना कर पुलिस वालों या सेना के जवानों को उड़ाते हैं. ये उन के आसपास फटकते हों, ऐसा भी नहीं है.

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