बचपन से ही सुनते आ रहे हैं कि पुलिस की न तो दोस्ती अच्छी, न दुश्मनी. ज्यादातर लोग मानते हैं कि पुलिस भरोसे लायक नहीं है, फिर भी उस पर भरोसा किया, पर उस का नतीजा मनमाफिक नहीं रहा.

दरअसल, कुछ दिन पहले ही दिल्ली रोड पर बने हमारे फार्महाउस पर हम ने आम का बाग लगाने के मकसद से गजरौला की एक नर्सरी से आम के 50 पौधे खरीदे थे. 5000 रुपए में सौदा तय हुआ. नर्सरी वाला 3000 हजार रुपए एडवांस लेगा और 2000 हजार रुपए पौधे लगाने के बाद उसे दिए जाएंगे.

अभी उस नर्सरी वाले ने 30 ही पौधे लगाए थे कि वह हंगामा करने लगा कि उसे पूरे 5000 रुपए चाहिए, जबकि वह पहले ही 3000 रुपए ले चुका था.

आपस में बहस होने लगी, जिस पर उस ने पुलिस को बुला लिया.

हम ने पुलिस वालों को पूरी बात समझाई. लेकिन पुलिस वाले उलटा हमें ही समझाने लगे, ‘इतने बड़े आदमी हो... इतने पैसे वाले हो कर आप जरा से रुपयों के लिए लड़ रहे हो. आप इसे पूरे पैसे दे दो न.’

आनाकानी करने पर हमारे खिलाफ एफआईआर दर्ज हो गई. हमें नर्सरी वाले और पुलिस की मिलीभगत समझ आ रही थी. कोई दूसरा भी हमारा साथ देने को तैयार नहीं था. वजह थी, एक तरफ पुलिस वाले और निम्न वर्ग (नर्सरी वाला), दूसरी तरफ हम बेकुसूर.

नर्सरी वाले ने तो रुपए झटके ही, पुलिस वालों ने भी हम से रुपए झटक लिए. हमें मन मार कर रुपए देने पड़े. लेकिन हैरानी की बात यह थी कि 2 दिन बाद जब हम फार्महाउस पर गए तो वहां आम का एक भी पौधा नहीं था. उस आदमी ने रात को सारे पौधे चुरा लिए थे.

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