गरमियां शुरू हो गई थीं. मैं उद्यान एक्सप्रेस के सेकेंड क्लास डिब्बे में गुलबर्गा स्टेशन से गाड़ी में सवार हुई. मैं ने देखा डिब्बे में बहुत ज्यादा यात्री भरे हुए थे. मैं बैठ गई और भीड़ की वजह से खिसकतेखिसकते बर्थ के कोने तक पहुंच गई. टिकट कलेक्टर आया और उस ने यात्रियों के टिकट चैक करने शुरू कर दिए. उस ने मेरी ओर देख कर पूछा, ‘‘आप का टिकट मैडम?’’

मैं ने जवाब दिया, ‘‘मैं तो अपना टिकट आप को दिखा चुकी हूं.’’

‘‘आप का टिकट नहीं मैडम, उस लड़की का जो आप की सीट के नीचे छिपी हुई है.’’ टिकट कलेक्टर उस पर चिल्लाया तो डरी हुई लड़की बाहर आई.

पतलीदुबली सी वह लड़की बहुत डरी हुई लग रही थी, मानों बहुत देर से रो रही हो. उस की उम्र लगभग 13-14 साल रही होगी.

टिकट कलेक्टर उसे पकड़ कर जबरदस्ती डिब्बे से बाहर निकालने लगा. तभी मुझे अपने अंदर एक अनोखा अहसास हुआ. मैं ने उस से कहा, ‘‘इस के टिकट के पैसे मैं दे दूंगी.’’

उस ने मेरी ओर देख कर कहा, ‘‘मैडम, अगर आप इस का टिकट खरीदने की बजाय इसे 10 रुपए दे देंगी तो यह खुश हो जाएगी.’’

मैं ने उस की बात अनसुनी कर के उस का टिकट आखिरी स्टेशन बेंगलुरु तक का ले लिया ताकि वह जहां चाहे, चली जाए.

कुछ देर बाद उस ने धीरे से बोलना शुरू किया. उस का नाम चित्रा था. वह बीदर के एक गांव में रहती थी. उस का बाप एक कुली था और उस की मां उस के जन्म के समय ही मर गई थी. उस के पिता ने दूसरी शादी कर ली थी, लेकिन कुछ महीने पहले उस की भी मौत हो गई थी. उस की सौतेली मां ने उस के साथ बुरा व्यवहार करना शुरू कर दिया तो अच्छे भविष्य के लिए उस ने घर छोड़ दिया.

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