प्रतीक का एमसीए का यह अंतिम सेमैस्टर था. वह कैंपस इंटरव्यू की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा था. इंटरव्यू की तैयारी के लिए उस ने सब से पहले अपने सब्जैक्ट्स के बेसिक कौंसैप्ट्स की गहन तैयारी में काफी समय दिया. फिर करंट अफेयर्स का भी बड़ी तल्लीनता से अध्ययन किया. इंटरव्यू के दिन वह काफी कौन्फिडैंट था कि आज किसी न किसी मल्टीनैशनल कंपनी में उस का चयन अवश्य होगा.

लेकिन वह अपने बैच में एकमात्र ऐसा कैंडिडेट था, जिस का सिलैक्शन नहीं हो पाया. प्रतीक ने जब इंटरव्यू का एनालिसिस किया तो उसे अपनी असफलता का कारण समझ आया. दरअसल, इंटरव्यू बोर्ड द्वारा पूछे गए प्रश्नों का प्रतीक बहुत अच्छे ढंग से उत्तर नहीं दे पाया था. कारण था उस की स्पोकन इंगलिश अच्छी न होना.

लेकिन इस का अर्थ यह नहीं था कि प्रतीक को अंग्रेजी नहीं आती थी बल्कि उस की इंगलिश बहुत अच्छी थी. बस, वह इंगलिश बहुत फ्लुएंटली नहीं बोल पाता था. उस की सब से बड़ी समस्या थी कि वह जब भी किसी के सामने इंगलिश बोलना शुरू करता तो बहुत डर जाता था और इसी घबराहट में वह गलतियां कर बैठता था.

सच पूछिए तो इंगलिश जानना और बोलना दोनों ही अपनेआप में अलगअलग बातें हैं और जिस में सफलता के लिए प्लान के आधार पर इंटैंसिव प्रिपरेशन और कंसिस्टैंट प्रैक्टिस की जरूरत होती है.

प्रतीक की असफलता की कहानी उन लाखों किशोरों की सच्ची दास्तान है जो उत्कृष्ट प्रतिभा के बावजूद फ्लुएंटली अंग्रेजी नहीं बोल पाते हैं और इस चक्कर में अच्छे अवसर भी खो देते हैं, क्योंकि आजकल मल्टीटास्किंग के साथसाथ फ्लुएंट अंग्रेजी को भी काफी महत्त्व दिया जाता है और अगर हमारे अंदर प्रतिभा है, लेकिन अंग्रेजी नहीं बोल पाते तो बेहतर मौके हमारे हाथ से निकल जाते हैं, जिस का पछतावा हमें हमेशा रहता है.

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