दलित चिंतक और लेखक चंद्रभान प्रसाद ने एक नया प्रयोग बाज़ार में दलित फूड्स पेश कर कर डाला है. क्या है दलित फूड्स और इसके कारोबार के पीछे चंद्रभान की मंशा क्या है इसके पहले एक नजर इतिहास पर डाली जाना मौजू है जो दलितों की खानपान संबंधी दुर्दशा का भी गवाह है. धार्मिक साहित्य पंडो ब्राह्मणों से भरा पड़ा है, जो दान में मिला स्वादिष्ट भोजन करते थे. यह मंहगा होने कारण पौष्टिक भी होता था. ब्राह्मणों को भोजन कराये जाने का विधान और उल्लेख जगह जगह है और यह भोजन खिचड़ी या दलिया नहीं, बल्कि 56 तरह के जायकेदार व्यंजन ही होना चाहिए, इसके निर्देश भी हैं गोया कि सादा खाना खिलाया तो मनोरथ पूरा नहीं होगा.

दलित समुदाय के लोग मोटे अनाज और दाल के अलावा सस्ती साग भाजी से गुजर करते थे (आज भी कमोबेश यही हालत ग्रामीण भारत में हैं) इसके बाद भी वे स्वस्थ हट्टे कट्टे और दीर्घायु होते थे, तो इसकी वजह उनका मेहनती होना थी. वक्त और हालत थोड़े बदले, जिन दलितों के पास पैसा आया, उन्होने ऊंची जाति वालों की तरह खाना शुरू कर दिया. इन्हे पंडों ने सामाजिक मान्यता भी दे दी और इनके यहां खाना भी शुरू कर दिया, क्योंकि पैसे वाला दलित ही उन्हे मेवे और देसी घी के व्यंजन खिला सकता था. पिछले 2 दशकों से धर्मगुरुओं और बाबाओं ने भी खानपान का कारोबार शुरू कर दिया, जिसकी शुरुआत आयुर्वेदिक नुस्खों और चूरण से हुई, फिर देखते ही देखते अचार, मुरब्बे, चटनियां और शरबतों के बाद मसाले कासमेटिक और सब कुछ वे बेचने लगे, सिवाय सेनेटरी नेपकिंस और हैयर रिमूवर के.

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