मंदिरों में घंटियां बजती हैं, मसजिदों में अजान होती है, चर्चों में प्रार्थना होती है कि समस्याएं दूर हो जाएं, लेकिन थानों में रपट लिखाने वालों की भीड़ बढ़ती जा रही है, अस्पतालों के भवन बनते जा रहे हैं फिर भी मरीजों के लिए बैडों की कमी पड़ रही है, न्यायालयों में मुकदमों का अंबार लगा है. आखिर माजरा क्या है? ऐसा क्यों है? क्या यह सोचने की बात नहीं है?

मनुष्य की उत्पत्ति और सभ्यता के विकास से अब तक जितनी जीव हत्याएं बाघ, भालू, सांप, बिच्छू आदि जंगली जानवरों के मारनेकाटने से नहीं हुईं, उस से ज्यादा आदमी की धर्मांधता से हुईं. दूसरों पर अपने विचारों को जबरन थोपने, लादने की कोशिश से हुईं. चाहे वे पुराने यूरोप में धर्म के नाम पर लड़े गए दीर्घकालिक युद्ध हों या साम्यवादी नरसंहार या हिरोशिमा और नागासाकी की भयानक त्रासदी.

आज के युग में ओसामा बिन लादेन और तालिबान तथा आईएसआईएस के बगदादी और उस के बेवकूफ लड़ाके, सभी मनुष्य और मनुष्यता को ही नष्ट कर रहे हैं. प्रकृति का अनमोल सृजन ‘मनुष्य’ नजरअंदाज कर दिया गया है.

आदमी जो अनगढ़ धरती को सुघड़, सुंदर और जीवन को कल्याणकारी बनाने का सतत प्रयास करता रहा है, वह आज विचारणीय विषयों के केंद्र बिंदु से दूर कहीं उपेक्षित रह गया है.

मनुष्य, जिस की सृजनशीलता, पांवों में गड़ने वाली काठ की खड़ाउओं से आगे बढ़ कर नरम, आरामदेह जूतों, चप्पलों, गुफाओं कंदराओं से निकल कर सर्वसुविधासंपन्न सुंदर भवनों, जंगलों के कंटीले झाड़झंखाड़ों से आगे बढ़ कर मनमोहक फूलों से सजे पार्कों, वनों से जीवन को मधुवन बनाती है. आज धर्म की आग में जल जाने के खतरे में है. मनुष्य जो चिकनी सड़कों, आरामदेह सवारियों, नयनाभिराम दृश्यों, मधुर संगीत वाली फिल्मों का निर्माता है, आदरभाव से वंचित हो रहा है. जगत और जीवन में जो कुछ आकर्षक और रसमय है, वह मनुष्य की क्रियाशीलता, सृजनशीलता को दर्शाता है. कहने का मतलब दुनिया में जीवन को जीने लायक जो भी प्रयास तथा उपक्रम किया गया है, वही जीवित प्राणी मनुष्य के लिए पूजने के लायक है.

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