केंद्रीय विद्यालय के छात्रों को तीसरी भाषा के तौर पर जरमन पढ़ाने को ले कर हाल ही में केंद्रीय विद्यालय, केंद्र सरकार, सुप्रीम कोर्ट और तमाम शिक्षाविद माथापच्ची करते नजर आए. इस से कम से कम एक बात सामने आई कि इस से सब से ज्यादा प्रभावित होने वाले बच्चों के लिए जरमन हो या उस की जगह केंद्र की ओर से थोपी गई संस्कृत, दोनों एक अतिरिक्त बोझ की तरह ही हैं. आज के समय में जब बच्चों के बस्तों का बोझ बढ़ता जा रहा है और यह लगातार कहा जा रहा है कि हम उन्हें व्यावहारिक शिक्षा नहीं दे पा रहे हैं, ऐसे में सुप्रीम कोर्ट को भी कहना पड़ा कि संस्कृत भले ही मिड टर्म से केंद्रीय विद्यालयों में लागू कर दी जाए पर उस के मार्क्स नहीं जोड़े जाएंगे.

इस से एक और बात साफ हुई कि हम आज भी मार्क्स और ग्रेड्स के पीछे भाग रहे हैं, बगैर इस की परवा किए कि इस का बच्चों पर क्या असर पड़ रहा है. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से भले ही बच्चों को आंशिक राहत मिली हो लेकिन उन के भविष्य के साथ आगे खिलवाड़ हो सकता है.

साजिशन आई जरमन भाषा

जरमन भाषा को पढ़ाने या न पढ़ाने को ले कर राजनीतिक दलों, शिक्षाविदों, अध्यापकों और भाषा के जानकारों के बीच मतभेद हैं. जरमन भाषा के एक जानकार और समर्थक अमृत मेहता हैं. वे 44 साल से इस भाषा के साहित्य का अनुवाद हिंदी व पंजाबी में कर रहे हैं. अमृत ने दिल्ली प्रैस को बताया कि जरमन भाषा को केंद्रीय विद्यालयों में लागू कराना एक साजिश है. वे बताते हैं कि इस के लिए 2009 से ही तैयारियां शुरू हो गई थीं. अमृत का कहना है, ‘‘तब उन्हें लगा था कि सरकारी स्कूलों में इस भाषा को पढ़ाने का फैसला केंद्र सरकार का है, इसलिए उन्होंने इस का खुल कर विरोध नहीं किया था. लेकिन यह फैसला जरमन भाषा को भारत में पालपोस रहे संस्थानों, अधिकारियों और केंद्रीय विद्यालय प्रबंधन ने परदे के पीछे लिया था.

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