राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद देश की बेहद महत्त्वपूर्ण संस्था है क्योंकि यहीं पाठ्यक्रम पुस्तकों का चयन होता है और इस बात की खुशी है कि परिषद इस का विशेष ध्यान रखती है कि वर्णों, जातियों, मान्यताओं, विचारधाराओं और धर्मों में पुस्तकें विभाजित न हों. पाठ्यक्रम की पुस्तकों को विशुद्ध रूप से ज्ञान के रूप में ही देखा जाना चाहिए.

देखने में यह भी आया है कि कुछ दूसरी संस्थाएं भी हैं जो पाठशालाओं और मदरसों में आपसी सद्भावना वाली पाठ्यसामग्री नहीं जुटा पा रही हैं जबकि स्कूल, कालेज और विश्वविद्यालयों की पुस्तकों का बड़ा महत्त्व होता है. यहां जो कुछ भी पढ़ाया जाता है उस का असर हर छात्र के मन में न केवल जीवनभर बना रहता है बल्कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को स्थानांतरित भी होता जाता है. इसलिए इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि कोई भी विचार इन पुस्तकों में ऐसा नहीं होना चाहिए जिस से सांप्रदायिक तालमेल या किसी प्रकार की द्वेष भावना का प्रचार हो.

सभी पाठ्यपुस्तकें, चाहे वे विभिन्न भाषाओं की हों या अन्य किसी विषय की हों, इस बात का खास ध्यान रखा जाना चाहिए कि उन में प्रकाशित सामग्री मूल रूप से धर्मनिरपेक्ष हो. इस का असर यह होगा कि जब बच्चे मदरसों या सरस्वती शिशु मंदिर जैसे धर्मपोषित शिक्षा संस्थानों से आगे बढें़गे तो उन में सद्भावना का प्रचार होगा. शिक्षाविद और लेखक प्रदीप कुमार जैन का कहना है कि विभिन्न शिक्षा संस्थानों में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों में कई अंश ऐसे हैं जो बच्चों के मन में जातिगत, धार्मिक, सामाजिक और लैंगिक भेद का पता दे रहे हैं. ये पुस्तकें नन्हेमुन्नों के दिमाग में न केवल अंधविश्वास की नींव डाल रही हैं बल्कि उन्हें इस तरह का पाठ पढ़ा रही हैं कि आगे चल कर वे एकदूसरे से नफरत ही करते रहें. यही कारण है कि आज हिंदू मुसलमानों को शक की निगाह से देखते हैं और मुसलमान हिंदुओं को.

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