उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर के बाशिंदों के दंगों से मिले जख्म भर ही रहे थे कि कड़कती ठंड के कहर और सियासी नमक ने उन्हें फिर से हरा कर दिया. मुख्यमंत्री का गांव ग्लैमर की चाशनी में डूबा था तो इधर बेबस जिंदगियां मदद की गुहार लगा रही थीं. सड़क के किनारे मदद की आस में बैठे पीडि़तों का दर्द बयां कर रहे हैं शैलेंद्र सिंह.

दंगे आम लोगों के जीवन पर कैसे प्रभाव डालते हैं, यह देखना हो तो मुजफ्फरनगर के राहत शिविरों में रह रहे लोगों की दयनीय हालत को देख कर समझा जा सकता है. सर्द रातें इन शिविरों पर कहर बन कर टूट रही हैं. सरकार की फाइलों में राहत शिविर भले ही खत्म हो चुके हैं पर लोग अभी भी यहां पर टैंट के नीचे रहने को मजबूर हैं. उत्तर प्रदेश की जिस अखिलेश सरकार को राहत शिविरों में रह रहे पीडि़तों के लिए इंतजाम करने थे, वह सैफई महोत्सव के रंग में डूबी रही. वह टैंट डाल कर रह रहे लोगों को जमीन पर अवैध कब्जा करने वाला मान कर उन के खिलाफ मुकदमे कायम कर रही है. सरकार ने राहत के नाम पर 1,800 लोगों को 5-5 लाख रुपए दे कर उन का मुंह बंद करने का काम किया है. दंगा पीडि़त बाकी 3 हजार लोग कहां जाएं, इस का कोई जवाब उस के पास नहीं है. दंगों के बाद इन पीडि़तों की जिंदगी बेबस, बेहाल और लाचार नजर आती है. यहां के हालात देख कर ऐसा लगता है जैसे सरकार राहत नहीं खैरात दे रही हो.

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