उस समय सलोनी जायसवाल की उम्र करीब 45 साल थी. उन के पति की मृत्यु हो गई. उन्नाव की रहने वाली सलोनी के कोई संतान नहीं थी. पति के न रहने पर घरपरिवार का उपेक्षाभाव और भी ज्यादा बढ़ गया था. सलोनी को लग रहा था जैसे पति के साथ उन की खुशियां भी खत्म हो गईं. बच्चे होते तो शायद उन का सहारा मिलता.  परिवार और समाज की नजरों में विधवा किसी अभिशाप से कम नहीं होती है. उम्र के इस दौर में जीवनसाथी का साथ छूट जाना मौत से बदतर महसूस होने लगा था.

उपेक्षा के इसी भाव से दुखी सलोनी एकाकीपन का शिकार हो गईं. परिवार के लोग उन को बीमार मान कर उन से दूर रहने लगे. ऐसे में करीब 4 साल पहले सलोनी को सहारा दिया वीनस विकास संस्थान की डा. निर्मला सक्सेना ने.  वीनस विकास संस्थान लखनऊ के जानकीपुरम इलाके में एक वृद्धाश्रम चलाता है. डा. निर्मला सक्सेना को जब सलोनी की हालत का पता चला तो वे उन को अपने साथ लखनऊ ले आईं.  वृद्धाश्रम में कुछ दिनों तक अपनी ही उम्र की महिलाओं के साथ रह कर सलोनी को कुछ अच्छा महसूस होने लगा. उन की तबीयत भी मानसिक रूप से बेहतर होने लगी और वे खुश भी रहने का प्रयास करने लगीं. धीरेधीरे समय बीतने लगा. सलोनी को एक बार फिर मजबूत सहारे की तलाश होने लगी. अपने मन की बात सलोनी ने डा. निर्मला सक्सेना से कही. शुरुआत में उन की बात को सुन कर सभी को थोड़ी हंसी आई. वृद्धाश्रम में काम करने वाले दूसरे लोगों ने तो मान लिया कि सलोनी की मानसिक हालत फिर से खराब होने लगी है. इस उम्र में कहीं कोई ऐसी बात करता है. लेकिन  डा. निर्मला सक्सेना को लगा कि सलोनी की इच्छा उचित है. वे इस प्रयास में लग गईं कि सलोनी को सदासदा के लिए अपनाने वाला कोई आगे आए.

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