इंजीनियरिंग की जिस डिगरी को हासिल करना कभी नौकरी की गारंटी और पारिवारिक प्रतिष्ठा की बात मानी जाती थी, आज वह डिगरी छात्रों और अभिभावकों के लिए एक ऐसा बोझ बनती जा रही है जिसे न तो केवल घर पर रख सकते हैं और न ही फेंक सकते हैं. ऐसा क्यों है, इसे समझने के लिए इतना ही काफी है कि शिक्षा हमेशा से ही एक व्यवसाय रही है. फर्क इतना भर आया है कि बदलते वक्त के साथसाथ आश्रमों व गुरुकुलों की जगह चमचमाते कालेज और पढ़ाने वाले दाढ़ीधारी गुरुओं के स्थान पर टाईसूट वाले प्रोफैसर दिखने लगे हैं यानी बदलाव शिक्षा प्रणाली के ढांचे में हुआ है, उस का मूलभाव ज्यों का त्यों ही है.

इस बदलाव का जीताजागता प्रमाण इंजीनियरिंग की डिगरी है जिस की हालत अब ठीक वैसी ही है जैसी 70 के दशक में बीए की डिगरी की हुआ करती थी कि हासिल तो कर लो, पर नौकरी पाने के लिए एडि़यां रगड़ते रहो. अब औपचारिक डिगरियों का जमाना लद चुका है. यह दौर तकनीक का है, इसलिए अधिकांश युवा रोजगार की अधिकतम गारंटी देने वाली डिगरी चाहते हैं.

यों आए फर्क

बहुत ज्यादा समय नहीं हुआ है, अब से 20 साल पहले तक प्राइवेट सैक्टर में ही इंजीनियरिंग की डिगरी नौकरी की गारंटी होती थी. वह कंप्यूटर का दौर था जब देशभर में सौफ्टवेयर कंपनियां अपना कारोबार बढ़ाने के लिए पांव पसार रही थीं. उस वक्त जिन्होंने कंप्यूटर और उस से जुड़ी शाखाओं में डिगरी ले ली, उन्हें हाथोंहाथ या फिर डिगरी लेने के एकाधदो साल के भीतर अच्छी नौकरी मिली

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