पटना के पुराने इलाके गायघाट मुहल्ले में बने महिला रिमांड होम. ऊंचे गेट और दीवारों को लांघ कर संवासिनों की दर्द और सिसकियां गाहेबगाहे ही बाहर आ पाती हैं. उसके बाद कुछ जांच के आदेश जारी होते हैं. कुछ रिपोर्ट तैयार होती है. हालात को सुधरने का फरमान जारी होता है. कुछ दिन के बाद मामला शांत होने के बाद फिर वहीं सिसकियों का दौर चालू हो जाता है. रिमांड होम में फिलहाल 136 बंदी हैं. उनके नहाने और कपड़ा धोने की बात तो दूर, पीने के पानी का ठीक इंतजाम नहीं है. कमरों में रोशनी और हवा का आना मुहाल है. तन ढंकने के लिए ढंग का कपड़ा तक मुहैया नहीं किया जाता है. इलाज का कोई इंतजाम नहीं होने की वजह से बीमार संवासिनें तड़प-तड़प कर जान दे देती हैं और उनकी आहें ऊंची दीवारों से बाहर नहीं जा पाती हैं.

महिला रिमांड होम का बड़ा सा दरवाजा जब भी खुलता है तो उसके भीतर रहने वाली महिलाओं और लड़कियों की आंखें एक साथ किसी अपनों के आने इंतजार में बरबस उस ओर उठ जाती हैं. वहां हर बंदी इस उम्मीद में जी रही है कि कभी न कभी कोई न कोई आकर उन्हें अंधेरी और सड़ांध भरी दुनिया से बाहर निकाल ले जाएगा, लेकिन हर बार उनकी उम्मीदें टूटती ही रही हैं.

भटकी, लाचार, पीड़ित महिलाओं की रक्षा या सुधर के नाम पर बने रिमांड होम की अलग ही दुनिया है. घुटन,जलालत, प्रताड़ना, भूख, फटेहाली, गंदगी, बीमारियों का जमावड़ा ही महिला रिमांड होम की यही कड़वी सच्चाई है. प्रेम और अपराध के कई मामलों में रिमांड होम की ऊंची और अंधेरी चाहरदीवारी के बीच कैद औरतों और लड़कियों को सुधरने के बजाए उनकी जिंदगी को तबाह और बर्बाद करने की करतूतें चलती हैं. रिमांड होम में कुछेक दबंग संवासिनियों (महिला कैदी) की हूकूमत चलती है और पीड़ितों का दर्द सुनने वाला कोई नहीं है. रिमांड होम का प्रशासन भी उनका साथ देता रहा है.

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